Thursday, 17 September 2015

काका की रेडियो में बजती

दिन भर से बोर होकर
जब शाम को मैं
चाय लेकर छत पे आता हूँ
सामने एक तस्वीर सा चेहरा
जो मेरे इंतजार में पागल
और
मैं बस देख के मुस्कुरा के
उससे नजरें फेर लेता हूँ
चाय की चुस्कियों के संग
आसमां में
घर लौटती चिड़ियों को
देखता हूँ
फिर पडोस के छत पर
काका की रेडियो में बजती
ले के पहला-पहला प्यार
वाला धुन
मजरूह साहब याद आ जाते है
चाय माँ की हाथों की
लगने लगती है
थकान उतर जाती है
बोझिल सूरज ढल जाता है
मैं पीछे मुड़ता हूँ
तस्वीर एक शक्ल का
रूप ले लेती है
मैं देख उसे मुस्कुराता हूँ
फिर उसे उसके हाल पे छोड़
अपने कमरे में लौट आता हूँ।

नितेश वर्मा

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