Tuesday, 22 September 2015

घरवालों की डाँट

घरवालों की डाँट
सर्द भरी वो रात
मैं इक लिहाफ ओढे
खुले आसमां में
तारे गिनता हूँ
अचानक बादल गरजती हैं
पानी की कुछेक बूंदें
छींटें बनके चेहरे पर गिरती हैं
इक लम्बा सुकून
हल्का होता मन
और फिर सिढियों पर
तुम्हारे आने की आवाज
कपड़े समेटते-समेटते
जब तुम मुझे
अपनी ओढनी सर पर ठीक करते हुए
देखती हो
ऐसा लगता है
जैसे सब कुछ पुराने जैसा हो गया
एक काँपती, लम्बी मगर सटीक सी
आवाज़ करीब आती है
भैया पापा नीचे बुला रहे हैं।

नितेश वर्मा और तुम।

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