घरवालों की डाँट
सर्द भरी वो रात
मैं इक लिहाफ ओढे
खुले आसमां में
तारे गिनता हूँ
अचानक बादल गरजती हैं
पानी की कुछेक बूंदें
छींटें बनके चेहरे पर गिरती हैं
इक लम्बा सुकून
हल्का होता मन
और फिर सिढियों पर
तुम्हारे आने की आवाज
कपड़े समेटते-समेटते
जब तुम मुझे
अपनी ओढनी सर पर ठीक करते हुए
देखती हो
ऐसा लगता है
जैसे सब कुछ पुराने जैसा हो गया
एक काँपती, लम्बी मगर सटीक सी
आवाज़ करीब आती है
भैया पापा नीचे बुला रहे हैं।
नितेश वर्मा और तुम।
सर्द भरी वो रात
मैं इक लिहाफ ओढे
खुले आसमां में
तारे गिनता हूँ
अचानक बादल गरजती हैं
पानी की कुछेक बूंदें
छींटें बनके चेहरे पर गिरती हैं
इक लम्बा सुकून
हल्का होता मन
और फिर सिढियों पर
तुम्हारे आने की आवाज
कपड़े समेटते-समेटते
जब तुम मुझे
अपनी ओढनी सर पर ठीक करते हुए
देखती हो
ऐसा लगता है
जैसे सब कुछ पुराने जैसा हो गया
एक काँपती, लम्बी मगर सटीक सी
आवाज़ करीब आती है
भैया पापा नीचे बुला रहे हैं।
नितेश वर्मा और तुम।
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