Sunday, 27 September 2015

कोई आवाज़ हैं जो आवाज़ कर रही हैं कानों में

कोई आवाज़ हैं जो आवाज़ कर रही हैं कानों में
दुरुस्त हैं हाल उनका करकें सवाल मकानों में।

बुझा दिया जाता हैं शाम के जलते उस दीप को
यूंही बेगैरत गुजरतीं हैं रात अपनी भी वीरानों में

शर्मिंदा अब हर शख्स हैं मेरे भी उस शहर का
देखते हैं जो अब गूँजता हैं नाम मेरा जहानों में।

बदल कर अपने अक्स को कितनी दूर चला हैं
जो ढूंढता हैं खुशियाँ सारी बिक्र की सामानों में

मेरे गम में भी वो बेहिसाब मौज करता है वर्मा
मैं याद आता हूँ जैसे नाम हो कोई ये बेगानों में।

नितेश वर्मा

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