Wednesday, 30 September 2015

समझो फिर तुम परेशां हो

जब चेहरे से दर्द रिसनें लगें
बंधी सारी ख्वाब टूटनें लगें
बात जुबां की बिगड़ने लगें
नींदों से रात बिछड़ने लगें
समझो फिर तुम परेशां हो

कोई कोशिश काम ना करें
शामों में भी आराम ना करें
शख्स बज़्म में जो तन्हा रहे
खुशी में भी विश्राम ना करें
समझो फिर तुम परेशां हो

चीखती पुकारें सुन ना सके
मरहम दर्द को चुन ना सके
दरिया प्यास को धुन ना सके
राग जो कबीरा बुन ना सके
समझो फिर तुम परेशां हो

अपराधी जब हो बेखौफ घूमें
सूरज की किरणें रोशनी ढूंढें
माँ तरसे जो बूंद भर पानी को
बाप की लाचारी बोतल सूंघें
समझो फिर तुम परेशां हो
समझो फिर तुम परेशां हो।

नितेश वर्मा

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