Saturday, 19 September 2015

मैनें हर वो आस छोड दी हैं

मैनें हर वो आस छोड दी हैं
जो मेरे ख्वाबों को लेकर चलती थीं
मैनें कुछ सपनों को फूँक दिया हैं
कभी जब सँभाले रक्खा था
सबकी नज़र घूरती थीं मुझे
मैनें हर उस नज़र को
कहीं राख कर दिया हैं
हवाएँ आकर उन्हें उडाती हैं
और मैं बस उन्हें खामोश देखता हूँ
माँ जब भी शामों में
मेरा सर सहलाती हैं
मै यूं ही कहीं खो जाता हूँ
जुल्फें बिगडती हैं उलझती हैं
जब भी माँ की उँगलियों में
मैं मुस्कुराँ कर
माँ की उँगलियों को
फिर सर के
किसी और जगह रख देता हूँ।

नितेश वर्मा और माँ

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