Wednesday, 30 September 2015

समझो फिर तुम परेशां हो

जब चेहरे से दर्द रिसनें लगें
बंधी सारी ख्वाब टूटनें लगें
बात जुबां की बिगड़ने लगें
नींदों से रात बिछड़ने लगें
समझो फिर तुम परेशां हो

कोई कोशिश काम ना करें
शामों में भी आराम ना करें
शख्स बज़्म में जो तन्हा रहे
खुशी में भी विश्राम ना करें
समझो फिर तुम परेशां हो

चीखती पुकारें सुन ना सके
मरहम दर्द को चुन ना सके
दरिया प्यास को धुन ना सके
राग जो कबीरा बुन ना सके
समझो फिर तुम परेशां हो

अपराधी जब हो बेखौफ घूमें
सूरज की किरणें रोशनी ढूंढें
माँ तरसे जो बूंद भर पानी को
बाप की लाचारी बोतल सूंघें
समझो फिर तुम परेशां हो
समझो फिर तुम परेशां हो।

नितेश वर्मा

Tuesday, 29 September 2015

फिर तुमको सोचना होगा

अगर धूप से छाँव ड़रने लगे
पश्चिमी हवाएँ भी सहम कर बहने लगे
शहर से दूर बसी गाँव बिखरने लगे
अपनों की जिक्र पे जुबां मुकरने लगे
फिर तुमको सोचना होगा

किताबें जब झूठी दास्ताँ बताने लगे
मजहब जब कोई कौम बुरा बताने लगे
कोई तस्वीर जब ड़राने लगे
दरख्त भी सायों में गम गुनगुनाने लगे
फिर तुमको सोचना होगा

बादल आए और बरसें भी ना
संदेश भी जब शहर को सोहाये ना
बात अंग्रेजों को हिन्दी की भाये ना
दिल हो अखबार पर लिख पाये ना
फिर तुमको सोचना होगा

परिंदों की उड़ान जब जमीं ढूंढें
घरों की मकान जब वजह ढूंढें
लौट कर बच्चे जब माँ ना पुकारें
दर्द भी जाने को जब रिश्वत माँगें
फिर तुमको सोचना होगा

फिर तुमको जगना होगा हर गहरी नींद से
चलना होगा निर्भय.. अपने हक को
छीनना होगा.. मुक्कदर से लड़ना होगा
ऐसा होगा तो सोच लो.. चुप नहीं रहना होगा
फिर तुमको सोचना होगा
फिर तुमको सोचना होगा।

नितेश वर्मा और फिर तुमको सोचना होगा ।

मुझको हर शख्स छोड़ देता है राहों में

मुझको हर शख्स छोड़ देता है राहों में
शायद मैं रस्ता हूँ मुसाफिर के चाहों में

वो बुलंद रखता हैं आवाज़ अपनी वर्मा
बेखौफ हैं बच्चा अपनी माँ की बाहों में

नितेश वर्मा और माँ

Sunday, 27 September 2015

बातों के आड़ में लतियाते रहिये

बातों के आड़ में लतियाते रहिये
ऐसी है बात तो बतियाते रहिये।

इल्जाम सारे शहर के मुझसे हैं
हँसीं लब आप गुनगुनाते रहिये।

कितनी परेशान हैं आँखें तुम्हारी
नजरें यूं मुझसे भी मिलाते रहिये।

मैं तंग हूँ तुम सुल्झी किताब हो
इस दीवानें को भी पढाते रहिये।

जिंदगी भर गम ही मिले हैं वर्मा
खूनी सर हर बार कटाते रहिये।

नितेश वर्मा

कोई आवाज़ हैं जो आवाज़ कर रही हैं कानों में

कोई आवाज़ हैं जो आवाज़ कर रही हैं कानों में
दुरुस्त हैं हाल उनका करकें सवाल मकानों में।

बुझा दिया जाता हैं शाम के जलते उस दीप को
यूंही बेगैरत गुजरतीं हैं रात अपनी भी वीरानों में

शर्मिंदा अब हर शख्स हैं मेरे भी उस शहर का
देखते हैं जो अब गूँजता हैं नाम मेरा जहानों में।

बदल कर अपने अक्स को कितनी दूर चला हैं
जो ढूंढता हैं खुशियाँ सारी बिक्र की सामानों में

मेरे गम में भी वो बेहिसाब मौज करता है वर्मा
मैं याद आता हूँ जैसे नाम हो कोई ये बेगानों में।

नितेश वर्मा

Friday, 25 September 2015

यही अच्छा रहेगा

काल्पनिक चरित्र सचित्र मस्तिष्क में पड़े हैं
स्वप्नविहीन हैं और कष्टदायी भी
परंतु परम्परागत मनोरंजित करती हैं
अवशेषों से ह्रदय लगाकर उब गया हूँ
यादें कुंठित करती हैं
तुम चली जाओ.. यही अच्छा रहेगा
मैं ठहर जाऊँ.. यही अच्छा रहेगा।

नितेश वर्मा और यही अच्छा रहेगा।


पापा जब भी ये कहते

मुझे नहीं लगता कुछ होने जाने वाला है
पापा जब भी ये कहते
माँ उन्हें एक ठंडे ग्लास का पानी
मुस्कुरा कर पकड़ा देती
मैं आँगन के बीच में बिछी चटाई पर
चुपचाप सर झुकाएँ अपनी हिन्दी के
किताब की उसी कविता को दुहरा देता
जो मुझे हर दफा डाँट सुनने के बाद
गुनगुनाना होता था
जो मुझे याद होता था बिलकुल लयबद्ध
धीरे-धीरे मैं कविता में रम जाता
पापा रेडियो आन कर लेते
माँ शाम की पकौडियाँ तलने लगती
आसमान में तारें बिछने लगते सुदूर
सब खूबसूरत लगने लगता
फिर हौले-हौले हवा भी चलने लगती
जब कभी तुम आ जाती।

नितेश वर्मा

तमाम फसाद की जड़ मेरा लिखना हैं

तमाम फसाद की जड़ मेरा लिखना हैं
बिक जाता हूँ मैं काम मेरा बिकना हैं।

सुबह धूप में आँखें खुलती नहीं हैं मेरी
तो चरागों में भी कहाँ कुछ दिखना हैं।

पहेलियाँ सुलझाता हूँ यूं रात भर तन्हा
तन्हाइयों में उलझकर कुछ सीखना है।

बात और भी हद से बढ़ गयीं हैं वर्मा
कुछ भी हो भोर कली को खिलना हैं।

नितेश वर्मा

Thursday, 24 September 2015

के अब आके उसे गुरुर नज़र आता हैं

के अब आके उसे गुरुर नज़र आता हैं
ये जान भी उसे मगरूर नज़र आता हैं।

वो तन्हाइयों में भी जो पागल चलता हैं
आँखों में उसे भी सुरूर नज़र आता हैं।

बदलता है हरेक दफा वो चेहरा अपना
गौर से जो देखा मजबूर नज़र आता हैं।

कुछ गफलत हैं मेरे परिवार में यूं वर्मा
शख्स करीबी बहोत दूर नज़र आता हैं।

नितेश वर्मा और नज़र आता हैं।

मैंने एक सिगरेट सुलगायीं थीं

मैंने एक सिगरेट सुलगायीं थीं
पीने के तलब से नहीं
कुछ वक़्त तन्हा होना चाहता था
मैं खामोश कुछ पल ही सही
गुजारना चाहता था
खामोशियों में उड़ता वो धुआं
काले कुहरे सा धुआं
सफेद दिखता है जैसे घना बादल
जब भी राख जलकर गिरती हैं
मैं सिगरेट की डिब्बे को देखकर
शर्मिंदा हो जाता हूँ
मैं उसे बुझा देना चाहता हूँ
मेरे करीब बैठा वो
एक दोस्त मेरी उँगलियों को
थाम लेता है
रिहा करता है मेरी पकड़ को
सिगरेट अब मुझसे लेकर
वो इक कश भरता हैं
शमाँ होती हैं.. महफ़िल बैठती हैं
सब छोड़ देना चाहते हैं पीना
मग़र लत हैं जो उतरतीं नहीं।

नितेश वर्मा और लत।

तू जोधा है किसी अकबर की

तू जोधा है किसी अकबर की
तुझे चाह रहा ये शफ्फूदीन हैं।

तू इक नशा है रात बीताने की
तुझे ढूंढ रहा दिल हर रोज़ हैं।

गुजारू हर लम्हा एतिहात से
तुझे भूल रहा मन मेरा चोर हैं।

आ गले लग जा मेरे हमनशी
तुझे सोच रहा मेरा तकदीर हैं।

नितेश वर्मा


बारिश तो छूट ही जानी हैं

जब भी मैं खामोश बैठ जाता हूँ
किसी अजनबी सोच को लेकर
कोई हल्की सी धुन खनकती हैं
हवाएँ बेहिस शरारतें करती हैं
मैं बार बार सुलझाता हूँ खुदको
कानों में बजती वो ग़ज़ल
बिखर जाती हैं
जब सामने की खिड़की पर
तुम आती हो
तुम्हें एक झलक वो देखने में
इयरफोन कानों से निकलकर
हाथों में आ जाते हैं
फिर कमबख्त ये बारिश
और तुम अचानक
खिड़की बंद कर लेती हो
मैं मुस्कुरा देता हूँ इस हाल पर
फिर वो हाथों की इयरफोन
मेरे कानों में चली जाती हैं
इस उम्मीद में
बारिश तो छूट ही जानी हैं।

नितेश वर्मा


मुझको कुछ और भी गम हैं तो बताने दे

मुझको कुछ और भी गम हैं तो बताने दे
दिल को थोड़ा और तुझसे खुल जाने दे
डूब के तैर रहा है जो इक तेरे इशारे पर
कुछ और हैं तू करीब आ मुझे शर्माने दे।

नितेश वर्मा

सुन मेरी धड़कनों को तू कभी

सुन मेरी धड़कनों को तू कभी
ढूंढ के पता शहर आजा कभी
मचलता हैं यूंही बावरा ये दिल
बात कर ना सता बेवजह कभी
सुन मेरी धड़कनों को तू कभी।

तुझको चाहता नहीं है दिल मेरा
फिर ढूंढता है क्यूं वजह बेवजह
तू सर्द रातों वाली वो चाँदनी है
मैं तकता यूं लेके वजह बेवजह
आजा ना सता मुझको तू कभी
सुन मेरी धड़कनों को तू कभी।

मेरी प्यास की समुन्दर हो तुम
नहीं ढूंढता हूँ मैं बारिश बेवजह
जिक्र आकर ठहर जा रहा क्यूं
ड़रता है वो लेके वजह बेवजह
सुनकर कुछ ना सहम तू कभी
सुन मेरी धड़कनों को तू कभी।

नितेश वर्मा

कोई और वजह है घर से निकलने की

कोई और वजह है घर से निकलने की
मत बोल यूं हर बार मुझसे बदलने की

मैं सँभल जाता हूँ जब भी गिर जाता हूँ
ना सीखा तू मुझको राह पर चलने की

मैंने देखा है आँखों में मुहब्बत उसकी
वो भूल जाती है करकें बात मिलने की

यूं तंग हैं जो इशारों में शायर कहते हैं
आ गए हैं बताने वजह उमर ढलने की

इतनी सी बोझिल हैं जिन्दगी मेरी वर्मा
बेखबर लोग कहते है मुझे संभलने की

नितेश वर्मा



जब भी वो भींगी आँखों से देखती हैं

जब भी वो भींगी आँखों से देखती हैं
मुहब्बत बेहिसाब छलकती हैं
मेरी आँखों की नमी
उसके आँखों में तैरती हैं
डबडबाये से.. दो चेहरे
एक-दूसरे को खामोश
देर तक तकते हैं.. बहोत देर तक
फिर नजरें वो फेर लेते हैं
ये कहकर तुम्हें तो प्यार हो गया है
मग़र किसी और से.. किसी और से।

नितेश वर्मा और भींगी आँखें।

Tuesday, 22 September 2015

जो हर रोज़ कहीं लिख के मिटाये जाते हैं

जो हर रोज़ कहीं लिख के मिटाये जाते हैं
जानें क्यूं कोई खबर ऐसे बनाये जाते हैं
लोग तलाशनें लगे हैं मुर्दों में जान अपनी
ऐसे ही लोग जमानें में सताये जाते हैं
वजह कोई और हैं तुम बदल गये हो
इक आवाज़ खनकती हैं
और कोई मुस्कुराये जाते हैं
शिद्दत यहीं रही थीं इक वजह को लेकर
कुछ ख्वाब कहाँ कहीं यूं बताये जाते हैं
हमको आवाज़ करना था तेरे खामोश शहर में
खबर जहाँ हर रोज़ मातम के दिखाये जाते हैं
टूटा हैं कोई
कोई खामोश हैं तेरे शहर में
बात ज़िंदा के मुँह से मुर्दों को सुनाये जातें हैं
अब तंग आ गया हूँ आ के तू देख ज़रा
कैसा हैं हाल मेरा
कैसा ये इम्तिहां तेरा
बिखरता हूँ हर लम्हा खुद में सारा
मग़र जुबाँ से इक वो दुआ दुहराये जाते हैं
जो हर रोज़ कहीं लिख के मिटाये जाते हैं।

नितेश वर्मा और मिटाये जाते हैं।


जिन्दगी

जिन्दगी की ये बस एक सफ़र ही खूबसूरत है.. बाक़ी पहुँच कर कहीं किसी को कुछ मिलता नहीं।

नितेश वर्मा और सफ़र।

आँखों में जब नींद होती है

आँखों में जब नींद होती है
और दिल कहीं बेचैन
कोई घड़ी ठहरता है यादों में
दो पल ही सही
मैं मुकरता हूँ हर बात से
हर ख्याली खौफ से
अक्सर मैं डर जाता हूँ
फिर खुद से कहता हूँ
ऐसा नहीं हो सकता कभी
मेरे घर में आग.. कभी नहीं।

नितेश वर्मा

बस बात इतनी ही बनी थी

बस बात इतनी ही बनी थी.. जितनी की बिगड़ीं हैं.. और खामाखाह अब दो लोग हमेशा बिगड़ें रहते हैं। जाने क्यूं की एक आवाज़ ..

नितेश वर्मा और बात।

कुछ बना लेने की कोशिश में

कुछ बना लेने की कोशिश में.. कुछ कर लेने की जिद में.. अक्सर इंसान बेहिस हो जाता है, हालांकि कई लोग मेरे इस बात से मुतासिर नहीं होंगे।
क्यूंकि कई लोग मेरी तरह ही इसी दौर से गुजर रहे होंगे। राहुल अपने ख्यालों में उलझे-उलझे ये सब कुछ सोच ही रहा था की अचानक उसके मोबाइल पर एक नम्बर फ्लैश हुआ। माँ का फोन था, राहुल वो काल पिक अप नहीं करना चाहता था। माँ का वो रोज़ का एक ही सवाल - बेटा आज कोई बात बनी, कहीं कोई छोटी नौकरी भी मिल जाए तो कर लो, कब तलक तुम अपने सपनों के पीछे भागोगे। तुम्हारी फिक्र हर वक़्त सताती है मुझे और तुम्हारे बाबूजी को भी।
राहुल ना चाहते हुए भी उस काल को पिक करता है - हाँ मम्मा।
अरे, तू इतनी देर से फोन क्यूं उठाता है, पता है तुझे! तेरी इस बात से मेरा जी कितना घबराता हैं, अजनबी शहर है ना वो बेटा, ख्याल रखा करो अपना।
हाँ मम्मा।
क्या हाँ मम्मा? कुछ बोल भी तो आगे।
मम्मा आज कुछ मूड अच्छा नहीं, फिर बात करते है।
बेटा, क्या हुआ? दवा ले लेना।
हाँ माँ, ठीक है ओके बाय, काल यू लेटर।
राहुल का ऐसे बेमन से फोन काट देने के बात से शायद माँ को इस बात की समझ हो गई थी कि आज भी राहुल को अपने अधूरे सपने के साथ तन्हा ही सोना हैं।
दरअसल राहुल किसी अजनबी राज्य के एक छोटे से कस्बे से है, जो पिछले सात महीनों से इस सपनों की शहर मुम्बई में एक गीतकार बनने के सपने से आया है, लेकिन उसकी हर रोज़ की कोशिश और दुनियादारों के जुमले राहुल अपनी इस जिन्दगी से अब तंग आ चुका था। उसे भी अब अपनी माँ की बातों में सच्चाई झलकती नज़र आने लगी थी। लेकिन अब इन ख्वाबों का क्या, क्या जिम्मेदारियों के अधीन होकर इंसान मजबूर हो जाता है। राहुल जब फिर से अपने ख्यालों में खोनें की कोशिश करता है पीछे से पलक आ जाती है। पलक भी गीतकार बनने की सपने को रखती है, हालांकि उसके अच्छे आवाज़ के कारण उसे ऐड फिल्मों में एक-दो बार गाने के चान्सेज भी मिले हैं। लेकिन पलक एक अच्छी गीतकार बनना चाहती है बिलकुल राहुल की तरह। राहुल की कविताओं, शे'रों, ग़ज़लों, नज़मों और भी ना जाने किन-किन चीजों से इंप्रेस होकर पलक ने उसे अपना हमसफ़र बनाने का सोच लिया था। मगर इन सबके विपरीत था राहुल का स्वभाव, वो एक आशावादी और घर-परिवार-सामाज को एक-साथ लेकर चलने वाला इंसान था। वो ऐसी हालत में किसी भी कमिटमेंट के लिये थोड़ा भी तैयार नहीं था, वो अपने भविष्य के लिये परेशान था तो पलक उसके इतने फिक्रमंद होने पर। इस जिन्दगी की भी अजीब सी दस्तूर है, वहीं दिल हारता हैं जहाँ कोई उम्मीद नहीं होती, जहाँ कोई जल्दी कभी बात नहीं बनती।
राहुल पलक को देखकर मुस्कुराता है फिर खामोश हो जाता है, पलक को ऐसी झूठी मुस्कानों की अब आदत हो गयी हैं। पलक फिर चुपचाप एक खामोशी ओढे राहुल के करीब जाके बैठ जाती है। घंटों खामोशियों में डूबे रहते हैं ये दो दिल, दोनों बस खामोश इसी उम्मीद में बैठें रहते है जैसे समुन्दर की लहरें कहीं से कोई ऐसी लहर लेके आऐगी जो एक शाम उन दोनों के ख्वाबों को पूरा कर देगी। बेबाक शाम की बहती हवाएँ जब पलक की जुल्फों से राहुल को परेशां करती हैं, पलक अपना इक हाथ उसके हाथों में रख देती है। राहुल मुस्कुरा देता है फिर माँ की फिक्र का ख्याल करकें राहुल माँ को फोन मिलाने लगता हैं।

नितेश वर्मा

घरवालों की डाँट

घरवालों की डाँट
सर्द भरी वो रात
मैं इक लिहाफ ओढे
खुले आसमां में
तारे गिनता हूँ
अचानक बादल गरजती हैं
पानी की कुछेक बूंदें
छींटें बनके चेहरे पर गिरती हैं
इक लम्बा सुकून
हल्का होता मन
और फिर सिढियों पर
तुम्हारे आने की आवाज
कपड़े समेटते-समेटते
जब तुम मुझे
अपनी ओढनी सर पर ठीक करते हुए
देखती हो
ऐसा लगता है
जैसे सब कुछ पुराने जैसा हो गया
एक काँपती, लम्बी मगर सटीक सी
आवाज़ करीब आती है
भैया पापा नीचे बुला रहे हैं।

नितेश वर्मा और तुम।

Saturday, 19 September 2015

तेरे शहर के मआरिफ़ अंजान हो गये

तेरे शहर के मआरिफ़ अंजान हो गये
कैसे कहें बगैर तेरे हम बेजान हो गये।

हमको दो कदम चलने की आदत थी
वो जिंदगी की बात कर रेहान हो गये।

मेरे हाथों से फिसलती रही तस्वीर वो
वो इक झलक देके मेहरबान हो गये।

इतना सा सिलसिला जारी रहे यूं वर्मा
मैं पढता रहा और वो आसमान हो गये।

नितेश वर्मा और हो गये।

मैनें हर वो आस छोड दी हैं

मैनें हर वो आस छोड दी हैं
जो मेरे ख्वाबों को लेकर चलती थीं
मैनें कुछ सपनों को फूँक दिया हैं
कभी जब सँभाले रक्खा था
सबकी नज़र घूरती थीं मुझे
मैनें हर उस नज़र को
कहीं राख कर दिया हैं
हवाएँ आकर उन्हें उडाती हैं
और मैं बस उन्हें खामोश देखता हूँ
माँ जब भी शामों में
मेरा सर सहलाती हैं
मै यूं ही कहीं खो जाता हूँ
जुल्फें बिगडती हैं उलझती हैं
जब भी माँ की उँगलियों में
मैं मुस्कुराँ कर
माँ की उँगलियों को
फिर सर के
किसी और जगह रख देता हूँ।

नितेश वर्मा और माँ

Thursday, 17 September 2015

उस शाम जब मैं

उस शाम जब मैं
खुद में टूट रहा था
अपनों से जूझ रहा था
एक कांधे की
जब मुझे जरूरत थीं
मैं तुम्हें तलाशता
फिर तुम्हारा
भींगी पलकों से
मुझे देखना
और तुम्हारा
वो इक पल में
कहके ये चले जाना
के अब मैं तुमसे
बात नहीं कर सकती
मेरा क्या हुआ था
उस शाम
आज तक दुहराती है
शामों में आँखें मेरी।

नितेश वर्मा

उन चार दोस्तों की बेफिजूली से दूर

उन चार दोस्तों की
बेफिजूली से दूर
मैं कुछ लिखने को बैठता
बार-बार की उनकी
वहीं बकवासें
मैं परेशान हो जाता
उनकी निबंध सी बातें
खत्म होने का
कोई सवाल ही नहीं होता
मैं खामोशियों को ढूंढता
और वो हर बहस में
मुझे शामिल कर लेते
मैं उगता के बाहर आ जाता
अब इन सबसे
कहीं दूर हूँ, खामोश हूँ
खुश हूँ मगर कुछ तो है
आज भी
उतना ही परेशान हूँ।

नितेश वर्मा

उस दिन जब वो उदास थीं

उस दिन जब वो उदास थीं
मैं जाने क्यूं बेचैन हो गया
मैं तन्हा ही था
फिर भी तो बदनाम हो गया
एक डर था मुझे
शायद कुछ मगरूर भी था
वो एक नाव सी थी
मैं पतवार
दोनों डूबे संग ही थे
फिर समुन्दर ने एक रहम की
किनारे जब लगें
तो
हम दोनों एक-दूजे
के सीने से लगे मिले।

नितेश वर्मा

मैं भी सबकुछ भूलकर

मैं भी सबकुछ भूलकर
आगे निकल जाना चाहता था
उन बहती हवाओं के साथ
मुड़ जाना चाहता था
उनके खिलाफ होने का ही
ये सबक मिला है मुझको
मैं ठहर के देखता रहा
बारिश एक तूफाँ के संग आयी थी
मैं भींगता रहा
उस पत्ते की तरह
कभी मचलता, उछलता
तो आखिर में आकर टूट जाता
और तुम चली गयी
बस यहीं कुछ याद आता है मुझे
जब भी इन बारिशों में
मैं अकेला होता हूँ।

नितेश वर्मा

वो रेश्मी सी उसकी हरी साड़ी

जब भी रूठ जाती है वो
मैं भी सिमट जाता हूँ
वो रेश्मी सी उसकी
हरी साड़ी
कत्थई खनकती चूड़ियाँ
मासूम सा चेहरा
जुल्फें हवाओं के संग
लब खामोश तंग से
आँखें जब भी ऐसी
मुझे घूरती हैं
मैं शर्म से मर जाता हूँ।

नितेश वर्मा

ट्रेन आने में वहीं रोज़ की देर

ट्रेन आने में वहीं रोज़ की देर
एक लम्बी सी रात
थकन एक चादर ओढे
बिस्तर का ठिकाना नहीं
मैं सोने चला जाता हूँ
अगली सुबह
होश खुलती है
मेरे सारे सामान गायब है
जेब में एक पैसा नहीं
घर जाने की उम्मीद
नैराश्य में तब्दील होकर
मुझसे कुछ ढूंढती है
मैं परेशान सा
कुछ तलाशता हूँ
फिर हारकर वहीं
जमीं पर लेट जाता हूँ
एक आवाज़
भैया उठ जाओ
मुझे सब साफ़ करना है।

नितेश वर्मा

कहीं गुजरें कोई एहसास, कभी ठहरूं मैं तुझपे

कहीं गुजरें कोई एहसास, कभी ठहरूं मैं तुझपे
जां चले यूंही होके आशिक आवारा रहूँ मैं तुझपे

मैं कैसे तरतीब से लिखूँ तू समुन्दर प्यास की है
तेरे सीने में होके यूं कैद पागल सा बहू मैं तुझपे

वो तो खुशनसीब पल थे जो संग गुजारें थे हमने
तुम अब याद आती हो ये दर्द सा सहूँ मैं तुझपे।

तुम याद आओगी बेशक चले जाने के बाद वर्मा
हर रोज़ फिर तेरी याद में शायरी कहूँ मैं तुझपे।

नितेश वर्मा और शायरी।


वो दिल तोड़ कर मुझसे जुदा हो गयी

वो दिल तोड़ कर मुझसे जुदा हो गयी
जाने ऐसी भी मुझसे क्या ख़ता हो गयी।

गुलाब सी वो मेरे बाहों में बसती रही थी
फिर एक दिन मुझसे वो खफा हो गयी।

अब तो हर मौसम वीराना लगता है मुझे
जब से वो गयी है जिंदगी सजा हो गयी।

न याद आये अब वो तो ये बेहतर है वर्मा
आँखों में ऐसी एक अजीब दुआ हो गयी।

नितेश वर्मा


घर होगा उसका तो शहर में दाखिला होगा

बस वहीं तक मेरे सफ़र का काफिला होगा
घर होगा उसका तो शहर में दाखिला होगा।

वो चाहे तो बदल सकता है यूं नसीब अपना
दस्तूर यही की सख्ती भरा ये राहिला होगा।

तबाह कर दिया मैंने जो मिल्कियत था मेरा
रोकर कह रही है माँ उसका हामिला होगा।

यही दुहराता रहा ग़र हर बार मैं जिन्दगी तो
अजीब होगी परेशानी और तू नाजिला होगा।

नितेश वर्मा

काका की रेडियो में बजती

दिन भर से बोर होकर
जब शाम को मैं
चाय लेकर छत पे आता हूँ
सामने एक तस्वीर सा चेहरा
जो मेरे इंतजार में पागल
और
मैं बस देख के मुस्कुरा के
उससे नजरें फेर लेता हूँ
चाय की चुस्कियों के संग
आसमां में
घर लौटती चिड़ियों को
देखता हूँ
फिर पडोस के छत पर
काका की रेडियो में बजती
ले के पहला-पहला प्यार
वाला धुन
मजरूह साहब याद आ जाते है
चाय माँ की हाथों की
लगने लगती है
थकान उतर जाती है
बोझिल सूरज ढल जाता है
मैं पीछे मुड़ता हूँ
तस्वीर एक शक्ल का
रूप ले लेती है
मैं देख उसे मुस्कुराता हूँ
फिर उसे उसके हाल पे छोड़
अपने कमरे में लौट आता हूँ।

नितेश वर्मा

बस दिन गुजरता रहे और कोई बात क्या है

बस दिन गुजरता रहे और कोई बात क्या है
तुम जो समझो हमें हमारी कोई जात क्या है।

घनी रातों में मिलना बारिश के थम जाने पर
समुन्दर की है प्यास तो कोई बिसात क्या है।

निगाहें से पढकर सारी शर्तें पूरी करो उनकी
अब मुहब्बत में ऐसी भी कोई सौगात क्या है।

वहीं तमन्ना उसे कामयाब होने की रही वर्मा
बिन हमसफ़र चले ऐसी कोई बारात क्या है।

नितेश वर्मा और क्या है।

Wednesday, 16 September 2015

ये आवारा गली के कुत्ते

मैं तो अपने घर के रस्ते भी भूलती जा रही हूँ और वो मेरे पीछे-पीछे चले आ रहा है। अब चाह के भी मैं नजरें उठा कर उसे ना तो देख सकती हूँ और ना ही अपने घर के उस मोड़ को। जब भी ऐसा कुछ होता है मैं डर जाती हूँ। एक बार तो जब मैंने उसे घूरा था तो वो भी मुझे जोर से घूरने लगा, उस दिन तो कैसे-कैसे बच-बचा के मैं घर आयी थी और आते ही सबसे पहले जोर से और पूरी तेज़ी में दरवाजा भी बंद किया था। हाँलाकि माँ मुझसे मेरी इस बात पर बिगडी जरूर थी, मगर माँ को मनाना इतना मुश्किल भी नहीं था जितना की उससे अपना पीछा छुडाना।
मगर आज तो हद हो गयी है ये तो मुझे रस्ते पर चलने भी नहीं दे रहा, अगर मेरे पास भी रिद्धिका की तरह स्कूटी होती तो मैं नहीं आराम से घर को चली जाती। पर पापा पता ना मेरा ख्याल करते है या फिर मेरी स्कूटी की फिजूलखर्ची से डर के हर बार मुझसे ये कह देते है - बेटा तुम मांगलिक हो ना तुम ये स्कूटी चलाओगी तो ऐक्सीडेंट के चांसेज ज्यादा हो जाऐंगे। और हर बार मैं पापा की बातों से खुद को मना जाती।
लेकिन आज का क्या.. क्या करूँ ..

आ गया एक और मगर वो इससे अच्छा है मेरे घर के पास में ही रहता है, सूरज मगर लोग सब मूरख बुलाते है, मेरा ही आशिक है पुराना वाला, मैं नहीं मानती मगर सब बताते है। मैंने भी काफी कुछ सुना है इसके बारे में फिर आज वो बाइक लेकर आया तो मैं बिना कुछ बोलें उसके बाइक पर बैठ गयी और एक हाथ उसके कंधे पर जा पहुंचा। प्यार में नहीं जी एक डर के कारण।
बाइक फिर उसने पागलों की तरह आगे बढाइ और मैंने पीछे मुडकर उस गली के कुत्ते को देखा तो वो बड़ी मासूमी से मुझे देखे जा रहा था। किसी से बताइयेगा मत मैंने सबसे नज़रें चुराकर उसे मुँह भी चिढा दिया था।
ये आवारा गली के कुत्ते तो और खतरनाक होते है, अब जाकर समझ आया है मुझे। इंसान से भी ज्यादा। 😊

नितेश वर्मा

Tuesday, 15 September 2015

सपने आँखों में भर के उड चले

सपने आँखों में भर के उड चले
हम परिंदे है इस जमीं से दूर चले
होंगे पूरे हर ख्वाब हम मानते है
मुठ्ठियों में बांधे बादल घुमड़ चले
सपने आँखों में भर के उड चले।

इन छोटे-छोटे तारों के संग
अपनी एक महफ़िल सजानी है
इन टूटी-टूटी सितारों से
बड़ी सी इक धुन बनानी है
लेके ऐसी उड़ान हम बढ चले
आसमां को अपना बनाकर के चले
सपने आँखों में भर के उड चले।

जीये हर पल अब बेखौफ
सताएँ ना मुझको कोई दौर
कोई भी हो अब कैसा भी हो
कहना नहीं मुझे कुछ उससे और
ऐसे ही जीतने की मेरी दौड़
करकें इरादे जमीं के परिंदे मुड़ चले
सपने आँखों में भर के उड चले।

नितेश वर्मा

जो बात मैं तुमसे कहते-कहते रह गया

जो बात मैं तुमसे कहते-कहते रह गया
जिस बात को तुमने अनसुना कर दिया
अब फिर वो बात मुझसे होगी नहीं
एक रोज़ था तुमने जिसे मना कर दिया

बिखरेंगे ख्वाब कई, शायद रातें मुहाल हो
जुबां धड़कन समझेगी, आँखें कहीं ढूंढेगी
पता उस मंजिल का ना होगा कभी संग
बात बदलेंगी, शामें ये अक्सर तड़पायेंगी
तुमने जिसको यूं ही बैठें बेगाना कर दिया
अब फिर वो बात मुझसे होगी नहीं
एक रोज़ था तुमने जिसे मना कर दिया।

अब खामोशियों में ना यूं तलाशों मुझे
मैं घबरा जाता हूँ हर इक वीरानियों में
आँखों में भरकर पानी तस्वीर उतारीं है
गिरते है जब-जब मैं खुद में टूट जाता हूँ
तुमने मेरी मुहब्बत को बहाना कर दिया
अब फिर वो बात मुझसे होगी नहीं
एक रोज़ था तुमने जिसे मना कर दिया।

अब फिर वो बात मुझसे होगी नहीं
एक रोज़ था तुमने जिसे मना कर दिया।

नितेश वर्मा

याद बचपन की आती है

याद बचपन की आती है
अब बड़े हो गये
तो कुछ सताती है
बिन आँसू के रूलाती है
याद बचपन की आती है।

कभी उटपटांग की बातें
तो कभी भूतों वाली रातें
कभी चोर-पुलिस
तो कभी रस्सा-खींच
हारते हर बार हम सब
खिलखिलाकर फिर भी
घर को साथ चले आते
दिन वही याद आती है
शामें वहीं सोहाती है
याद बचपन की आती है।

गाँवों की गंगा में
जमुना हर बार मिलती थी
आसमानों की उड़ान
सबके आँखों में मिलती थी
डूबती थी ख्वाबों में आँखें
कटती कभी जो पतंगें
लूटने की मार होती थी
कोई गिर जाता रस्ते में
कोई घुटने छिल के
पंतगे संग धागे समेट लेता
क्यूं अब ये दिखता नहीं
बच्चे घर में बड़े हो रहे
देखने को भी अब वो सब
आँखें तरस जाती है
याद बचपन की आती है।

नितेश वर्मा

घर में मैं अकेला होता हूँ

अब भी जब कभी घर में मैं अकेला होता हूँ, तुम्हारी याद बरबस आ जाती है। आँखों से जाने क्यूं आँसू निकल कर तुम्हारी अजीब-अजीब तस्वीरें बनाने लगती है। मैं हैरान हूँ, मैं अब भी कहीं तुम्हें खुद में लेकर चल रहा हूँ। जिन्दगी के इस मोड़, उम्र की इस दहलीज पर आकर जहाँ सब नागँवारा लगता है। लेकिन क्या करें इनपर मेरा कोई इख्तियार थोड़े ही ना है, अब तुम याद आती हो तो आती हो, लेकिन जब पीछे से मेरी बेटी मुझसे निगाहें छिपाकर वो पढ़ने की कोशिश करती है, मैं उसे अपने गोद में उठा लेता हूँ और उस पन्ने को फिर से उसी डायरी में डाल देता हूँ, जो मैं कभी तुम्हें देना चाहता था।

नितेश वर्मा

हर कदम पे मुरझाये है

हर कदम पे मुरझाये है
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं
टूट के बिखरे पड़े हैं
बेतरतीब ख्यालों से
कोई हाथ ना उनको
अब तो समेट पाये है
हर कदम पे मुरझाये है
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं ।

पहले दबी किताबों में मिलते
तो किसी के बालों में मिलते
कोई लट उलझी रहती थीं
तो वो बाह डाले
किसी के बाहों में मिलते
हर कली मुस्कुराती थीं
हर लड़की दीवानी होती थी
इन बातों से
अब जी घबराता हैं
कैसे मौसम अब आये है
हर कदम पे मुरझाये है
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं ।

नितेश वर्मा

एक उदासी घेरे रहती हैं उसके जाने के बाद

बस एक ख्याल सा..
वो उस छोटी सी बात पर नाराज़ होकर चली गयीं.. आज़ तक यकीन नहीं होता.. क्या वो बात इतनी बडी थीं.. या वो बात.. सिर्फ उसके जानें का बहाना था.. और मेरा उसके यादों में ठहर जानें का..
कुछ समझ नहीं आता.. बस एक उदासी घेरे रहती हैं उसके जाने के बाद।

नितेश वर्मा

ओस की बूंद तुम, मैं ठहरा हुआ जमीं तेरा

ओस की बूंद तुम, मैं ठहरा हुआ जमीं तेरा
पहली सुबह की धूप तुम, मैं एक कतरा तेरा
तू ही है हर लम्हा मुझमें, मैं हूँ जुल्फ तेरा
बारिश की फुहार तुम, मैं प्यासा घटा तेरा
दिल की एहसास हो तुम, मैं हर वफा तेरा
उस शहर की सौदागर तुम, मैं फकीर तेरा
आ जाये हर घड़ी वो याद तुम, मैं पल तेरा
ठहरी साँसों की रवानी तुम, मैं धड़कन तेरा
ओस की बूंद तुम, मैं ठहरा हुआ जमीं तेरा

नितेश वर्मा

आपके सवालों से मैं परेशान हूँ

आपके सवालों से मैं परेशान हूँ
मैं अपनी नज़र में तो नादान हूँ।

आप जब चाहे करें जो दिल्लगी
मैं तो आपके घर का दिवान हूँ।

नहीं होती उम्र कुछ जो तू होती
कुछ बातों से मैं भी अन्जान हूँ।

अब लौट आये है तेरे गाँव वर्मा
ले के ख्याल मैं ही तेरी जान हूँ।


जब माँ आयी

उस दिन समझ आया
मैं कुछ नहीं
सब अपनी बात
एक-दूजे से कर रहे थे
सुन सिर्फ़
मैं रहा था
कहने को अल्फाज कम थे
मगर थे कुछ जरूर
एक पहल हुई खुशी की
जब माँ आयी
सब चुप हो गये
और हवाओं में वहाँ
सिर्फ मैं था
मैं और मेरा जिक्र।

नितेश वर्मा

तुम मेरी उम्र की लगती नहीं

तुम मेरी उम्र की लगती नहीं
ख्यालें कोई उम्र देखती नहीं।

फिर गिला क्यूं करू तुझसे मैं
बेवजह कोई चीज होती नहीं।

हो जाये जब मुहब्बत तुमको
यकीं हो दिल ये सोचती नहीं।

उसकी यादों में ही डूबे रहते हैं
बगैर उसके जुबां हिलती नहीं।

क्या चंद लम्हें हैं गुजारें वर्मा
सजा उम्र की क्यूं मिलती नहीं।

नितेश वर्मा और उम्र।


हो सके तो पढनें के लिये स्कूल जाईये

सफर हसीं मुहब्बत के आप भूल जाईये
हो सके तो पढनें के लिये स्कूल जाईये।

आपको अब ये ऐसा नहीं लगता हैं क्या
पढिये किताबें और पैसें को वसूल जाईये।

नितेश वर्मा

जब कभी मतलबी वक्त

जब कभी मतलबी वक्त
अपने मतलब के बाद
गुजर जाते है
इंसान बुरे हो जाते है
दिल बेचैन
दर्द तलाशता रहता है
एक चुभन
हर वक़्त सीने में
मगर वो एक
तस्वीर मिटती ही नहीं
ऐसे लगता है
बारिश, तूफाँ संग आया था
गाँव उजड़ गयीं
मगर लोग अब भी जिंदा है।

नितेश वर्मा और मतलबी वक्त।

वर्मा ऐसी ही निशानी सी हो गयी है हिंदी।

अब तो गुजरीं कहानी सी हो गयी है हिंदी
किसे है पता यूं दीवानी सी हो गयी है हिंदी।

अब तो माहौल ऐसा है के सब शोर करे है
और मेरी तरह जुबानी सी हो गयी है हिंदी।

जी चाहे जो जैसे अपने हिस्से से समेटे है
अब तो ये यूं मनमानी सी हो गयी है हिंदी।

एक कोशिश है सबकुछ बेहतर करने की
वर्मा ऐसी ही निशानी सी हो गयी है हिंदी।

नितेश वर्मा और हिन्दी।

Monday, 14 September 2015

मुझसे नाराज़ होकर तुम अब क्यूं जा रही हो

मुझसे नाराज़ होकर तुम अब क्यूं जा रही हो
ज़िन्दगी हो मेरी तो क्यूं हल्ला मचा रही हो।

नितेश वर्मा और ये हल्ला
उफ्फ। :)

Sunday, 13 September 2015

हिन्दी दिवस

हिन्दी दिवस की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ। हिन्दी को और मनोहारी बनाने की कोशिशें की जाएं। इसका प्रचार-प्रसार जरूर करें। हिन्दी को अपनाएं एवं हिन्दी को आगे बढाएं। :)

बहोत ही लम्बा सफर किया हैं मैनें
तन्हा खडा हूँ अब हाथ तो बढाओ।

नितेश वर्मा

जब चाही उसनें नज़रें मेरी झुक गयीं।

फिर उसी बात पर आकर ये रूक गयीं
जब चाही उसनें नज़रें मेरी झुक गयीं।

लाख कोशिशें करते रहें उनके होने की
फिर उसी शख्स से यह जां फूँक गयी।

नितेश वर्मा और जां फूँक गयी। 

एक वक्त के लिये अपना बनाया था उसने मुझे

एक वक्त के लिये अपना बनाया था उसने मुझे
मैं हैरान आखिर क्यूं आजमाया था उसने मुझे।

मेरे सवालों का कोई जवाब नहीं था पास उसके
मैं भी लौट आया ना रोक मनाया था उसने मुझे।

यूंही मुहब्बत में दो दिल बर्बाद हो ही जाते बेचारें
कसम याद आया कैसे झूठलाया था उसने मुझे।

मुझको अब गुमा-ओ-वफा का कोई भूत नहीं हैं
वर्मा उतर गयी हैं जो भी पिलाया था उसने मुझे।

नितेश वर्मा और उसने मुझे।

जुल्फें सवर जाऐंगी

जुल्फें सवर जाऐंगी
बादल बरसने के बाद
आँखें भी थम जाऐंगी
बादल बरसने के बाद
लबों की सख्ती
खुल के बरस के चुप है
शिकन चेहरे पे है
मुहब्बत लम्हे
शायद अब शुरू हो।

नितेश वर्मा और मुहब्बत।

कुछ गुंजाइश बाकी हो तो एक गल करूँ

कुछ गुंजाइश बाकी हो तो एक गल करूँ
तुम्हें सीने से लगाने की फिर वो भूल करूँ

तुम तो नाराज भी होके यूं हँसीं लगती हो
हो इजाजत तो इन लबों को कुबूल करूँ।

नितेश वर्मा

मैं बेचैन हूँ इक झील सा

मैं बेचैन हूँ इक झील सा
बेताबियाँ सीने के अंदर है
हर शाम कुछ लोग आते है
खामोशियों से बोझिल होके
अब उगता सा गया हूँ
मैं इन शरीफ लोगों से।

नितेश वर्मा और शरीफ लोग।

आगे कोई धूप

जब भी मैं किसी खूबसूरत वादियों
के बीच जाता हूँ
तुम याद आ जाती हो
जाने क्यूं
ठंडी हवाएँ मुझे तुम्हारी
एक एहसास दिला जाती है
वो एक सिहरन थामें
मैं कोसों दूर चलता हूँ
हर बार की
इस ख्याल की तरह
आगे कोई धूप
मेरे इंतजार में पागल होगी।

नितेश वर्मा और धूप।

हिन्दोस्ता, पाकिस्ता और कश्मीर

मुझको वो हर हाल में चाहिए
जो किसी हाल में मेरा नहीं
ऐसी है जिद की सब परेशां है
हिन्दोस्ता, पाकिस्ता और कश्मीर।

नितेश वर्मा

Tuesday, 8 September 2015

कुछ हिसाब से ज्यादा ही करते है पापा

कुछ हिसाब से ज्यादा ही करते है पापा
पूछते नहीं बस हर दाम भरते है पापा।

इन्हीं आँखों से देखा है उनको हर उम्र
अब इन्हीं निगाहों से क्यूं डरते है पापा।

सोच-विचार के अब भी लिखा करते है
मुझमें एक एहसास सा यूं रहते है पापा।

उनकी ताउम्र की कमाई आज लूटी है
घर बच्चे और समाज की सहते है पापा।

नितेश वर्मा

यूं ही एक ख्याल सा

यूं ही एक ख्याल सा ..

तुमको रूठ के जाने की आदत थी और मुझे खामोश रह जाने की। 😘

नितेश वर्मा और आदतें

Monday, 7 September 2015

मैं भी खामोश था और वो भी कुछ ना बोलें

मैं भी खामोश था और वो भी कुछ ना बोलें
बस दोनों थे रहे नाराज मगर कुछ ना बोलें।

एक दिन हल्की बारिश सी हुई थी शहर में
भींगे थे दो जिस्म जुबाँ मगर कुछ ना बोलें।

हर आँखों से बूंद छलक जाता है बेहिसाब
आँखों में है उसके धूल मगर कुछ ना बोलें।

दूर रहते है सारे सयाने उस बस्ती के वर्मा
सब तंगहाल ही जी रहे मगर कुछ ना बोलें।

नितेश वर्मा और कुछ ना बोलें।

Sunday, 6 September 2015

किसको पता है वो कब कामयाब होगा

किसको पता है वो कब कामयाब होगा
हुनरमंदी कभी तो किसी रोजगार होगा।

वो बस इसी ख्याल से हर रोज़ निकले है
कभी तो इंसान उसका मददगार होगा।

हिसाबों में ही गुजारी है ये जिंदगी हमने
कब कोई हो जो मुझसे वफादार होगा।

उसकी जुल्फों से रौशनी हरपल है वर्मा
आँखें कभी वो मेरा भी तलबगार होगा।

नितेश वर्मा

मुझको तो तेरी हर बेईमानी पसंद है

मुझको तो तेरी हर बेईमानी पसंद है
तू कर नादानी, तेरी नादानी पसंद है।

शाम के धुएँ में ये कौन चेहरा ढूबा है
दिल को मेरे इक वो दीवानी पसंद है।

उसको मुझे बाहों में समेटना है कभी
वो करीब है तो मुझे शैतानी पसंद है।

मुझसे लड़ के मेरे जुल्फें सुलझाती है
मुझे उसकी, यही मनमानी पसंद है।

नितेश वर्मा

मुझको ये हुनर है के मैं बिखर जाता हूँ

मुझको ये हुनर है के मैं बिखर जाता हूँ
टूटने के बाद ही उसको नज़र आता हूँ।

रातें हर पहर में वो उठ के बैठ जाती है
उसको हवाओं में मैं ही समझ आता हूँ।

बंद दरवाजों पे चिठ्ठियाँ बेतरतीब हो गई
दीवाने वो शहर हर बार मैं लिखवाता हूँ।

मुझको भी वो भूलकर दूर रहती है अब
मैं खुद अब जहाँ से आँखें चुरा जाता हूँ।

वो दरीचों के दरम्यां मुझे ढूंढती है वर्मा
मैं उसके सीने में फिर से तड़प जाता हूँ।

नितेश वर्मा और हुनर।

Wednesday, 2 September 2015

हर बार की तरह

कुछ मेरे अंदर ही अंदर चलता रहता हैं
मेरी खामोशियाँ कुछ ख्वाब बुनती हैं
मैं डरता हूँ
हर बार की तरह
इस बात से
जानें ये भी मुझसे छूटा तो क्या होगा।

नितेश वर्मा और क्या होगा।

अब भी

अब भी जब कभी घर में मैं अकेला होता हूँ, तुम्हारी याद बरबस आ जाती है। आँखों से जाने क्यूं आँसू निकल कर तुम्हारी अजीब-अजीब तस्वीरें बनाने लगती है। मैं हैरान हूँ, मैं अब भी कहीं तुम्हें खुद में लेकर चल रहा हूँ। जिन्दगी के इस मोड़, उम्र की इस दहलीज  पर आकर जहाँ सब नागँवारा लगता है। लेकिन क्या करें इनपर मेरा कोई इख्तियार थोड़े ही ना है, अब तुम याद आती हो तो आती हो, लेकिन जब पीछे से मेरी बेटी मुझसे निगाहें छिपाकर वो पढ़ने की कोशिश करती है, मैं उसे अपने गोद में उठा लेता हूँ और उस पन्ने को फिर से उसी डायरी में डाल देता हूँ, जो मैं कभी तुम्हें देना चाहता था।  

नितेश वर्मा

भाई अक्सर झूठ बोलते है

भाई अक्सर झूठ बोलते है
आँखों की नमी में
एक बड़ा सा एहसास ले के घोलते है
भाई अक्सर झूठ बोलते है।

बचपन में जिसको देखा था
हर बात पे मुझसे झगड़ता था
उसके गुस्से को और बड़ा
करना कितना अच्छा लगता था
शायद अब वो बड़ा हो गया
गुमसुम-गुमसुम रहता है
ऐसे तो अब ये रहता है
सबसे छुपा के देखा मैंने
कैसे वो सपने टटोलते है
भाई अक्सर झूठ बोलते है।

दुनियादारी की बीमारी
हित-रिश्तेदारों से लाचारी
लोगों की चलती अखबारी
सबको चुप हो सहते है
देखा है दिल उनका मैंने
कैसे वो महफ़िल में होते है
खट्टी, मिठी, कड़वी यादें
आँसू से अपने तौलते है
भाई अक्सर झूठ बोलते है।

किसी रोज़ उन आँखों में सपने थे
जैसे भी थे उसके वो अपने थे
तोड़ दिया उस रोज़ उसने
वो जिंदगानी जो उसकी अपनी थी
किसी और के ख्वाब पूरे करते है
कौन कह रहा है वो छोटे होते है
हर दर्द, हर आह को झेलते है
बारिश में भींगी
उस हरी पत्ती की तरह डोलते है
भाई अक्सर झूठ बोलते है।

मेरे लबों की हँसीं हर पल होती है
वो एक दूर से ख्याले करता है
मुझमें एक रवानी उससे रहती है
बहन की यही कहानी रहती है
भाई के संग हम खुश होते है
हरपल वो चुप-चुप रहते है
और मेरी टूटती ख्वाहिशों के लिये
अपनी जुबां वो खोलते है
भाई अक्सर झूठ बोलते है।
भाई अक्सर झूठ बोलते है।

नितेश वर्मा

एक रोज़ मैं अपने ख्याल से मिला

एक रोज़ मैं अपने ख्याल से मिला
सबके नज़र में था जो नासूर
उस बेहाल के उस हाल से मिला
एक रोज़ मैं अपने ख्याल से मिला

पल-पल टूटता खुद में रहा था
खामोशियों में भी खामोश होकर
सुनता था हर शह में एक सहर
जिन्दा-दिली में मशहूर होकर
बात बढ कर टूटी थी उस दिन
आये थे जब अपने खंज़र लेकर
आँखों में ऐसे बंजर थे
पानी के जगह लहू-मंजर थे
कुछ और ना पूछो उस बदहाल की
मनके लिये उस जंजाल से मिला
 कैसे उस दिल के बवाल से मिला
एक रोज़ मैं अपने ख्याल से मिला

हर गली, हर नुक्कड़ पे आवाज़ थी
मेरी बातें छींनी उसने
यही उस रोज़ की भरी व्यापार थी
मेरे दिल के कोने का कमरा
जाने कबसे चीत्कारें भरता रहा
मेरे सपनों में यही रातें उगती रही
बेचैन मन की आहें टूटती रही
जब ठानी थी कुछ करने को
तब मैं सहकर सब चलता रहा
सफ़र के सब मैं सवाल से मिला
आँखों के उस हर मज़ाल से मिला
एक रोज़ मैं अपने ख्याल से मिला
एक रोज़ मैं अपने ख्याल से मिला।

नितेश वर्मा और एक रोज़ ।

बीते दिन याद आये अब

बीते दिन याद आये अब
पल वो नज़र ना आये अब
आँखों की मेरी बूंदों में
ख्वाबों सा तू आये अब
बीते दिन याद आये अब।

टूटें-बिखरे शीशे है
यादों के ऐसे टींसे है
छुऊँ कभी जो मैं डर के
आँखों की दर्द
जुबां की आह
खून से रंगे अब शीशे है
ऐसी रातें आये अब
दिल ही दिल घबराये अब
सफ़र सुहाना ठहरा अब
अँधेरों में मुझको रहना अब
बीते दिन याद आये अब
पल वो नज़र ना आये अब।

दिन-रात कभी जीतें थे
यादों में ही अब गुजरते है
अपने ख्वाबों को
अब ख्वाबों में ही रखते है
जब उसे बुरा लगा
वो मुझको छोड़ चल दिया
मिट्टी का मेरा दिल
उसको तोड़ वो चल दिया
कौन किसी को जाने अब
दिल रोता, जुबां फरेबी अब
टूटे है हर साये अब
बीते दिन याद आये अब
पल वो नज़र ना आये अब।

नितेश वर्मा

हिन्दोस्ता, पाकिस्ता और कश्मीर

मुझको वो हर हाल में चाहिए
जो किसी हाल में मेरा नहीं
ऐसी है जिद की सब परेशां है
हिन्दोस्ता, पाकिस्ता और कश्मीर।

नितेश वर्मा

तुम्हारी हाथों की कंघन

कड़ाके की सर्द सुबह की आगाज
मेरा साइकिल पर बैठ कर
हल्के रफ्तार से घर से निकलना
ठीक 5 बजे
तुम्हारा उस मोड़ पे मिल जाना
तुम्हारा मुझे एक भर देखना
फिर नजरें बदलकर चल देना
याद आ जाता है अब भी
जब भी
कोई पुरानी चीज़ें समेटता हूँ
तुम्हारी हाथों की कंघन
जिन्दगी सुनाती है अब भी।

नितेश वर्मा

याद बचपन की आती है

याद बचपन की आती है
अब बड़े हो गये
तो कुछ सताती है
बिन आँसू के रूलाती है
याद बचपन की आती है।

कभी उटपटांग की बातें
तो कभी भूतों वाली रातें
कभी चोर-पुलिस
तो कभी रस्सा-खींच
हारते हर बार हम सब
खिलखिलाकर फिर भी
घर को साथ चले आते
दिन वही याद आती है
शामें वहीं सोहाती है
याद बचपन की आती है।

गाँवों की गंगा में
जमुना हर बार मिलती थी
आसमानों की उड़ान
सबके आँखों में मिलती थी
डूबती थी ख्वाबों में आँखें
कटती कभी जो पतंगें
लूटने की मार होती थी
कोई गिर जाता रस्ते में
कोई घुटने छिल के
पंतगे संग धागे समेट लेता
क्यूं अब ये दिखता नहीं
बच्चे घर में बड़े हो रहे
देखने को भी अब वो सब
आँखें तरस जाती है
याद बचपन की आती है।

नितेश वर्मा

Tuesday, 1 September 2015

मैं जानता हूँ मैं बेकार हूँ वर्मा

गम आँसुओं के बह रहे होंगे
जाने कौन दर्द सह रहे होंगे।

लिपटते है हर बार मुझसे वो
बुरा कहीं और कह रहे होंगे।

इंसान इंसाफ़ो की बस्ती में है
आसमां में लोग ढह रहे होंगे।

जर्जर मकाँ जंजीरों से बंधा है
अपने कहीं और लह रहे होंगे।

मैं जानता हूँ मैं बेकार हूँ वर्मा
राम तो पड़ोस में रह रहे होंगे।

नितेश वर्मा

मैं डरता हूँ

कुछ मेरे अंदर ही अंदर चलता रहता हैं
मेरी खामोशियाँ कुछ ख्वाब बुनती हैं
मैं डरता हूँ
हर बार की तरह
इस बात से
जानें ये भी मुझसे छूटा तो क्या होगा।

नितेश वर्मा और क्या होगा।

के अब मैं तुम्हारी नहीं हूँ

याद वो सबकुछ अचानक आ गया
तुम्हारा वो बिना बात के चले जाना
के अब मैं तुम्हारी नहीं हूँ
का एक आवाज़ बार-बार
जो कानों में हरपल गूँजता रहता
मैं शाम को आँगन में बैठ के सोचता
आखिर अब क्या होगा
पापा का अचानक अखबार से
चेहरा हटाकर मुझे गुमसुम देखना
शाम की चाय लेकर
जब माँ मेरा सर सहलाती
लगता जैसे अब सब ठीक हो जायेगा।

नितेश वर्मा और माँ

उस पीपल के पेड़ के नीचे

उस पीपल के पेड़ के नीचे
जो हम दोनों के घर से दूर था
उस कुएँ के सूखें से जमीं से
जो पानी के छलकने से भी
बंजर ही पड़ा रहता था
पेड़ के पत्ते सूखकर टूट जाते
टहनियाँ अकड़कर मुड़ जाती
तुम लाज से मारे पानी भरती रहती
आँखों से मेरे नीर बहते रहते
तुम खामोश रहती, मैं खामोश रहता
एक दिन सबने जोर की आवाज़ की
मुहब्बत दबी-सहमी रह गयी
एक भीड़ ने पीपल काट दिया
एक ने वहाँ कई खून कर दिये
अब वहाँ बारिश होती है
सूरज की किरणें आँखों में दिखती है
फसलें वहाँ लहलहाती है
सब सुनहला अच्छा लगता है
जिसको पता नहीं के कभी
यहाँ कोई दो दिल मचलता था
उसको सब अच्छा-अच्छा लगता है
उस पीपल के पेड़ के नीचे
जो हम दोनों के घर से दूर था
उस कुएँ के सूखें से जमीं से
जो पानी के छलकने से भी
बंजर ही पड़ा रहता था।

नितेश वर्मा और पीपल का पेड़।

ऐसे ही बढता रहे बिहार

ऐसे ही बढता रहे बिहार
इस बार भी नीतीश कुमार
अंधे, गूंगे, बहरों की सरकार
ढोता रहे कोई जिम्मेदार
ऐसे ही बढता रहे बिहार
इस बार भी नीतीश कुमार।

सड़के गढ्ढो वाली रहे
सोच कीचड़ में सने हो
आँखों में अफीम रहे
फूँकते कोई शंखनाद रहे
सब वादों से छुपता रहे बिहार
सूखें धूप में जैसे घर का अचार
हर नुक्कड़ पे लगे रहने दो
तुम पागल हो, पागल रहने दो
खुदा जाने कैसे मिलेगा तुम्हें
उच्च राज्य का अधिकार
ऐसे ही बढता रहे बिहार
इस बार भी नीतीश कुमार।

भ्रष्टाचार, अपराध, बलात्कार
है सदियों से इनके हथियार
कर दो अगला पाँच साल भी इनके हाथ
यही करे बिहार लालू सा हर बार
गरज कहाँ है हमसे किसी को
केंद्र में बैठीं है मोदी सरकार
अब जुबां आकर वो खोले है
अच्छे दिन का वादा था एक व्यापार
सबको हाय-हाय करनी है
बस अपनी जेबें भरनी है
लूट रहा रोज़ सम्मानों का अखबार
ऐसे ही बढता रहे बिहार
इस बार भी नीतीश कुमार।

नितेश वर्मा और बिहार।

‪#‎नज़म‬ का उन्वान मेरे मित्र राज शेखर जी ने लिखा है, वो बिहार, मधेपुरा के रहने वाले हैं। वो फिल्मों के लिये भी गाने लिखते है। मोदी सरकार का नारा भी इन्हीं ने लिखा था, जो काफी मशहूर हुआ था। इसे बताने का कारण बस यह है कि अगर वे यह पढते है तो मुझे उनके विरुद्ध ना समझे, यह मेरी सोच इस सरकार या हर उस सरकार से है जिनके वादे एक वक्त पर आकर झूठ साबित हो जाते हैं।

मोहे सिक्के ना तेरे ये सोहाये

भैया मोरे इतनी सी ख्वाहिश पूरी कर दीजो
मोहे हाथ के धागें तू अपने हाथ बाँध लीजो
मोहे सिक्के ना तेरे ये सोहाये
भैया मोरा, बिन तेरा जीया मोरा घबराये ।

भैया मोरे इतनी सी ख्वाहिश पूरी कर दीजो
मोहे चुनर सर हाथ धर दीजो
मोहे खाली-खाली दिन ना भावे
भैया मोरा, बिन तेरा जीया मोरा घबराये ।

भैया मोरे इतनी सी ख्वाहिश पूरी कर दीजो
मोहे जीने की रंग दे दीजो
मोहे मर-मर जीना ना आवे
भैया मोरा, बिन तेरा जीया मोरा घबराये ।

भैया मोरे इतनी सी ख्वाहिश पूरी कर दीजो
मोहे आँखों में नींद दे दीजो
मोहे डर-डर के सोना ना भावे
भैया मोरा, बिन तेरा जीया मोरा घबराये ।

भैया मोरे इतनी सी ख्वाहिश पूरी कर दीजो
मोहे आज का दिन दे दीजो
मोहे संग तेरे चैन लग जावे
भैया मोरा, बिन तेरा जीया मोरा घबराये।

नितेश वर्मा और रक्षाबंधन।