Monday, 1 December 2014

बुरें हैं कितनें हम के कोई मनानें नहीं आतें

बुरें हैं कितनें हम के कोई मनानें नहीं आतें
पूछतें हैं कई सवाल पर अपनानें नहीं आतें

क्या गलती,क्या दोष,क्या अपराध था मेरा
लगी हैं घर में आग, कोई बुझानें नहीं आतें

नाम का इश्तेहार में होना भी जुल्म हुआ हैं
फरिश्तों की हैं मार कोई दफ़नानें नहीं आतें

लो बोल ही दिया उसनें अब वो मुकम्मल हैं
मेरा होना ना होना,ये कोई मायनें नहीं आतें

नितेश वर्मा


बाहों में भरकर उसे इक किताब करता हूँ

आज उसके आँसूओं का हिसाब करता हूँ
बाहों में भरकर उसे इक किताब करता हूँ

प्यार पूछतें हो मेरें किनारें आकर मुझसे
मैं हूँ वो जो सूरज को आफताब करता हूँ

नितेश वर्मा

क्यूं जुबां दर्द की आँखें ये अब लिखती नहीं

क्यूं जुबां दर्द की आँखें ये अब लिखती नहीं
देखता हूँ आईनें में तो तकदीर दिखती नहीं

थक-हार के बैठ गया हैं मुसाफ़िर सुबह का
निकला था जिस राह,मंजिल पे मिलती नहीं

कब का टूट चुका हैं दिल मेरा ये आईनें का
बिखरें हैं अरमां मगर ये अब मचलती नहीं

बहोत दिनों बाद पायी फुरसत तो ये सोचा
क्यूं अपनों के साथें शामें ये अब ढलती नहीं

यकीं था इक दिन होगा शायद कुछ ऐसा ही
कहेंगें जब सब किताबें ये अब बिकती नहीं

नितेश वर्मा


बहोत हुई तकलीफ़ हैं आज उससे मुलाकात के बाद

बहोत हुई तकलीफ़ हैं आज उससे मुलाकात के बाद
उसकी आँखें अभ्भी नम हैं मुझसे मुलाकात के बाद

मैं तो हुई इन बारिशों में पसीनें से तर-बतर हुआ था
हालत अब तो ऐसी हैं जैसे बिछ्डन,मुलाकात के बाद

नितेश वर्मा

इन दर्द-आहटों के पीछें, इक तस्वीर हैं

इन दर्द-आहटों के पीछें, इक तस्वीर हैं
मुझमें बसी रही तो तेरी इक तस्वीर हैं

समझती रही थीं तो ये बारिशें कुछ और
चेहरें पे उसके अभ्भी तो इक तस्वीर हैं

कितना हसीं सफ़र तो था,रूखसत तक
अब तो नमीं से लगी,तो इक तस्वीर हैं

छोड आया हैं इश्क में वफा की निशानी
बची ये ज़िन्दगी तो अब इक तस्वीर हैं

नितेश वर्मा

Monday, 24 November 2014

उन आँखों की कहती जुबानी को सुन लो

उन आँखों की कहती जुबानी को सुन लो
मुझसे मेरी बची इक कहानी को सुन लो

बातों से ना अब यह समुन्दर बाँधों तुम
मुझसे तो अपनी बेईमानी को सुन लो

उन सौ सवालों का जो इक जवाब हैं आया
मिला जो अब सुकूं उस सुहानी को सुन लो

मैं तो अपनें ही उन वादों में उल्झा रहा था
कहतें रहें जो सब उस दीवानी को सुन लो

नितेश वर्मा

Sunday, 23 November 2014

इन आँखों का कुसूर इतना था

इन आँखों का कुसूर इतना था
तेरे यादों में कभी ये रोई बहोत

नितेश वर्मा

क्या करेगा जिस्म

क्या करेगा जिस्म
जब वो
आँसूओं से धूल जाऐगा
यकीनन
हो एक दिन कहीं
मिट्टी में वो मिल जाऐगा

कालिख रातों का
सफ़र भी सुहाना-सा हैं
जब तलक
बहती हवाओं से
जुल्फ़ सँभाल जाऐगा
कहीं और भूल जाऐगा
तो ये दिल
कहीं धूल जाऐगा

क्या करेगा जिस्म
जब वो
आँसूओं से धूल जाऐगा

नितेश वर्मा

दिल इक शोर किये बैठा हैं

दिल इक शोर किये बैठा हैं
मुझे खुद ही
कहीं चोर किये बैठा हैं
यूं बुलाता हैं
ये ना-जानें ऐसा क्या
जैसे एक छोर पे
ये दिल का कोर किये बैठा हैं
दिल इक शोर किये बैठा हैं

तिनका-तिनका समेटा
अँधेरों का जुबां पढा
कहता क्या
जो ज़ुर्म के अंदर ही अंदर
घुट-घुट के मरा
बहोत शौक से
एक शोक पे बैठा हैं
ये दिल ना-जानें
क्यूं अब भोर किये बैठा हैं
दिल इक शोर किये बैठा हैं

नितेश वर्मा

कितनी रोई हैं ये आँखें की आईना भींग-सा गया हैं

कितनी रोई हैं ये आँखें की आईना भींग-सा गया हैं
रातें नमी लिये बैठी हैं और आँखें भींग-सा गया हैं

नितेश वर्मा

इक तलब इस शाम तक हैं,ये दिल तेरे किस काम तक हैं

इक तलब इस शाम तक हैं,ये दिल तेरे किस काम तक हैं
यूं हीं पूछ के फिर नाम मेरा, ख्याल तेरा तो इनाम तक हैं

नितेश वर्मा

इक बेफिक्र शाम

इक बेफिक्र शाम
जिसमें तुम
तुम्हारी बातें, तुम्हारी यादें

बादलों के बीच बनती
वो तुम्हारी तस्वीर
जिसकी ज़ुल्फें
यूं ही बेवजह
बारिशों के साथ मचलती

और
हर हल्की धीमें फुहारों के बाद
वो इक सायें से
तुम्हारा झांकना
और फिर
उस मचलती धूप के
पीछें हो जाना

तुम्हारा मेरे दिल में
धुएं की तरह कहीं छुप जाना
मुझसे मिलना मुझसे रूठना
मेरे ना होनें से
तुम्हारा बिगडना

आँधियों के बीच
मुझें बाहों में भींचना
बेफिक्र-सा
वो तुम्हारा प्यार
इस फिक्र में गुजरती
यें मेरी
इक बेफिक्र शाम

इक बेफिक्र शाम
जिसमें तुम
तुम्हारी बातें, तुम्हारी यादें

नितेश वर्मा

उसका होना मेरे होनें से कितना अलग हुआ

उसका होना मेरे होनें से कितना अलग हुआ
उसकी जुल्फों में ही
इक छाव, इक धूप,
इक रात, इक भोर हुआ

निगाहों का मिलना
होंठों का ठहरना
यूं ही बेवजह
सर-सराती पत्तियों का मचलना
कितना कुछ अलग हुआ
हर शोर के पीछें
जैसे एक कातिल कोई चोर हुआ
उसका होना मेरे होनें से कितना अलग हुआ

वो हल्की बारिशों-सी थीं
मेरा दिल शायद कोई बर्फ़ हुआ
उसकी बातें कहीं दूर ले जाती
मैं जमीं का जैसे रेंत हुआ
मेरे और उसमें
बहोत कुछ अलग-सा होगा
मगर दिल
उसके होनें से ही दिल हुआ
फिरता कहाँ हैं कहीं ये यूं ही
उसके होनें से ही मैं मुकम्मल हुआ
उसका होना मेरे होनें से कितना अलग हुआ

नितेश वर्मा

अंजानें में ही मिला होगा वो कहीं तो

अंजानें में ही मिला होगा वो कहीं तो
जुबां पर बसा हैं उसका नाम तभी तो

जुल्फों का बन गया हैं लट यूं ही तो
हुआ तो होगा खुलके बारिश कभी तो

वो तो डायरी के पन्नों से भी खफ़ा हैं
हुआ होगा दिल के आईनें पे कभी तो

इंंतजार तो उसके बस हाँ तक का हैं
कहता हैं कहाँ वो इक बात, वहीं तो

मैं तो उससे भी ना कुछ बोल पाया
ता-उम्र कहता,डरूगाँ उससे नहीं तो

नितेश वर्मा

..इक सियासत हैं..

..इक सियासत हैं कुछ तुममें कुछ मुझमें.. ..जहाँ कोई बात हैं वहाँ इक सियासत हैं.. ..हुई हैं गर रात तो सियासत हैं.. ..सबेरा के आगे इक सियासत हैं....धर्म हैं तो इक सियासत हैं..

..जहाँ अधर्म हैं वहाँ इक सियासत हैं.. ..प्यार हैं तो इक सियासत हैं.. ..फ़रेब में इक सियासत हैं.. ..हर बात में इक सियासत हैं.. ..हर आवाज़ में इक सियासत हैं..
..किताब में इक सियासत हैं.. ..इस आज़ में इक सियासत हैं.. ..उस बीतें कल में इक सियासत हैं..

..हर जगह,हर ओर,हर ज़ुबां पे इक सियासत हैं.. ..गर तुम हो तो सियासत हैं.. ..ना हो तो इक सियासत हैं..

..लिख रहें हो तो इक सियासत हैं.. ..पढ रहें हो तो इक सियासत हैं.. ..गर हिन्दुस्तान में हो तो इक सियासत हैं..

..इक सियासत हैं..

..नितेश वर्मा..

ख्याल उसका हैं, कोई बात नहीं

उसके फैसलें अब उसके जैसे नहीं
बदल रही हैं रूहें
बदल रही हैं वो..

ख्याल उसका हैं, कोई बात नहीं
बदल रहें हैं सवालें
और बदल रहें हैं हम..

नज़र उनकी ही चेेहरें तक की हैं
ढूँढतें हैं वो जवाब
और मकाँ बदल रहें हैं हम..

ले लिया हैं हमनें खुद इक हिस्सा
पूछनें का काम रहा हैं
इतिहास का किस्सा..

उसके फैसलें अब उसके जैसे नहीं
बदल रही हैं रूहें
बदल रही हैं वो..

नितेश वर्मा

लो हो गया सौदा खतम

लो हो गया सौदा खतम
पूछा उसनें नाम
और मैनें कह दिया हम

नितेश वर्मा

क्यूं ले लिया हैं उसकें आगोश नें मुझे बाहों में

क्यूं ले लिया हैं उसकें आगोश नें मुझे बाहों में
आसमां बिखेर रहीं हैं किरण सूरज के सायों में

चलती-फिरती किताबों का मकबरा बना रखा हैं
कोई ये कह दे अब उनसे ना आयें मेरी राहों में

शहर के अपनें ये सारें तो परायों से हो गये हैं
ढूंढतें रहें जिस मकाँ को लूटें वो सारें आहों में

कबसे बोल दिया था जिसे मैं अब उसका नहीं
क्यूं लगता हैं जैसे वो बसे हैं मेरी निगाहों में

नितेश वर्मा

इक खामोशी में, इक बात लिये बैठा हूँ

इक खामोशी में, इक बात लिये बैठा हूँ
इस दिल पे मैं इक किताब लिये बैठा हूँ

वो कितना पूछतें हैं मुझसे ये पता मेरा
मैं साँसें उनके मुलाकात में लिये बैठा हूँ

नितेश वर्मा

Sunday, 9 November 2014

किस ओर ले चला हैं ये रस्ता मुझे

किस ओर ले चला हैं ये रस्ता मुझे
वो यूं रखता हैं बनाकर ज़स्ता मुझे

कहीं और जा के अँधेरें में ढूँढों मुझे
जो सब कहतें रहें थें यूं सस्ता मुझे

नाउम्मीद ही रहीं हैं वो बातें उसकी
डूबें रहें थें बतला के जो हँसता मुझे

इन्कार करके अभ्भी ज़ुर्म सह रहा
दिख रहा हैं हाले-दिल खस्ता मुझे

नितेश वर्मा

Saturday, 8 November 2014

उसे देखा हैं जो आँखों नें तो ख्याल आया हैं

उसे देखा हैं जो आँखों नें तो ख्याल आया हैं
उसके हर मलाल का मजबूर सवाल आया हैं

वो मुझसे अभ्भी पूछती हैं यूं निगाहें छुपाकर
ज़माना कहता हैं उसे कितना मज़ाल आया हैं

इस उँगलियों पे उससे गुनाहें गिनाकर आयें हैं
रोया हैं इस कदर की चेहरें पे जलाल आया हैं

धूल के बारिशों में ये दिल भी पिघल आया हैं
और वो कहती हैं की पत्थर हलाल को आया हैं

नितेश वर्मा

यूं तो कमरें के हर कोनें से कई सुराग मिलें

यूं तो कमरें के हर कोनें से कई सुराग मिलें
जैसे बहती गंगा में जलतें कोई चराग़ मिलें

थोडा-सा बस निखर के आया था परिणाम
लोग जल्दबाज़ी में जाकर हराम को मिलें

यूं टूट के चाहतें रहें जिस छावं को ता-उम्र
वो नफ़रतों के हवालें से सब बेईमान मिलें

हमारा नाम भी आया था दिलों में होनें का
बिन मर्ज़ी कहीं और बसे तो इंतकाम मिलें

इस ज़ुर्म की गुनाह अब कहाँ तक जाऐगी
वर्मा जो तुम्हारें ही नाम से ये नाम मिलें

नितेश वर्मा

Wednesday, 5 November 2014

चाहतें हैं रूह से,रूह तक तेरे हो जाएं

चाहतें हैं रूह से,रूह तक तेरे हो जाएं
साँसों से होकर,साँस तक तेरे हो जाएं

नहीं हैं बुनना ख्वाबों का समुन्दर इसे
दिल से लगकर,दिल तक तेरे हो जाएं

तू ही हैं बस इक मेरी जीनें की वजह
चाहत हैं यही,चाहत तक तेरे हो जाएं

के बाँध के बैठें हैं मुकम्मल पता तेरा
फैसला हैं की,फैसलें तक तेरे हो जाएं

अब छुपा के क्यूं रखा हैं चेहरा तुमनें
नज़र हैं के,ये नज़र तक तेरे हो जाएं

नितेश वर्मा

कातिल भी कोई ना समझे,उडा दिया हैं मैनें रखी धूल को

बस चुप-चाप तोड के रख दिया हैं मैनें वही उस फूल को
कातिल भी कोई ना समझे,उडा दिया हैं मैनें रखी धूल को

शर्मं किसी के भी तो आँखों में ना कभी आई थीं ऐ वर्मा
मैनें उल्झा दिया हैं चेहरा,रख-कर चेहरें पें इक भूल को

नितेश वर्मा

तेरी उँगलियों पे रक्खा बोझ

के लो चलो अब ये सफर खत्म हुआ
तेरी नर्म उँगलियों के बीच
फँसी मेरी सख्त उँगलियाँ
तेरी उँगलियों पे रक्खा बोझ
अब खत्म हुआ

सीनें से लगानें की अब जरूरत नहीं
मिट्टी का खिलौना था
मिट्टी में अब मिलनें चला
बहता था शायद किसी समुन्दर-सा
परिंदों का क्या पता
मैं तो अपना घर ढूँढनें चला

सब नाखुश आज भी मिलें
मय्यत पे शोर और लोग दफनानें चलें
टूटा दिल आज भी मेरा
मेरे अपनें भी मुझे अब मनानें ना निकलें
सही हुआ थक गया था
कहाँ तक दौडता इसीलिए मर गया था

के लो चलो अब ये सफर खत्म हुआ
तेरी नर्म उँगलियों के बीच
फँसी मेरी सख्त उँगलियाँ
तेरी उँगलियों पे रक्खा बोझ
अब खत्म हुआ!

नितेश वर्मा

लेके मेरे कत्ल का सामान मुझसे मिलें

सब बेरंग, बेमौत, बेइमान मुझसे मिलें
लेके मेरे कत्ल का सामान मुझसे मिलें

पूछ लिया ना-जानें मैनें कैसी दबी बात
अपनें ही सारें बेचारें हैंरान मुझसे मिलें

तंग बातें नहीं, तंग ये रिश्तें हो चले थें
उन शक्लों के आडें हैवान मुझसे मिलें

किसी और को कहाँ तक लेकर चलता
होके घर के कमरें बेजान मुझसे मिलें

बस इक ये तेरा ही उम्मीद बचा रहा हैं
वर्मा बनके जरूरत अंज़ान मुझसे मिलें

नितेश वर्मा




किसी रोज़ तो तेरी इन बाहों में होगें हम

के यूं बनके उदास, कब-तक भटकेंगे हम
किसी रोज़ तो तेरी इन बाहों में होगें हम

ये रास्ता अब ना तो तेरा हैं, ना ही मेरा
मिलके किसी रोज़, मंज़िल कह देंगे हम

तौबा किया हैं तो ये नाम भी ना लो मेरा
खातिर तुम्हारें, यूं ही दिल तोड लेंगे हम

मज़ाक हैं क्या आईना हर-वक्त अपना हो
तुम्हारी ये तस्वीर कहीं और पढ लेंगे हम

दो महज़ बातें, और साँसों की कसम दी हैं
भूल जाऊँ मैं वो चेहरा जिसमें रहतें हैं हम

बस फर्क इतना ही रह गया महबूब से मेरा
वर्मा ढूँढता था, वो जो शायद नहीं हैं हम

नितेश वर्मा



ना-जानें हैं किस बात पे ये रूका

..ना-जानें हैं किस बात पे ये रूका..
..ना-जानें किस बात को हैं ढूँढता..

..दिल मेरा अब मुझसे क्या कहता..
..अंदर जो खामोश सौ दर्द हैं सहता..

..तलाशूं जो वजहें तो तू हैं मिलता..
..बेकार की बातों से डर हैं लगता..

..नाराज़ तो सब यहाँ कौन डरता..
..कीमत की सज़ा मैं दूर ही रखता..

..नितेश वर्मा..

उनसे माँगी मेरी हर दुआ अधूरी रह गई

उनसे माँगी मेरी हर दुआ अधूरी रह गई
शायद खुदा की भी कोई मजबूरी रह गई

दो-दो गज़ नाप के मिली थीं मिट्टी यहाँ
मरनें के बाद यही एक बात पूरी रह गई

चरागों का दौर ही कुछ और था मुसाफिर
ढूँढनें आएं मकाँ तो मीलों की दूरी रह गई

अब हर अंजाम से हैं वाकिफ़ ये किनारा
लहरों ने सोचा समुन्द्र की मंज़ूरी रह गई

मैं तो खुद इस जिंदगी से परेशान हूँ वर्मा
खबर किसी और की बस कसूरी रह गई

नितेश वर्मा

ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं

ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं
मौत में ही मुझको यकीन लगता हैं
खाँमाखाहं!
ये रोज़ तुझे बचानें की तैयारी मेरी
इक बेचैनी, इक बेरहमी, इक मासूम
दिन-रात संवरती इक सरगोशी
मगर मुझे, तेरा
यूं ख्वाबों में आना हसीन लगता हैं
ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं

कभी कहीं बिन तेरे हुआ कहाँ था मैं
साँसों से लेकर जाँ तक तेरी दुआ था मैं
बदली नहीं हैं अब तक तस्वीर तेरी
आवाज़ जितनी चाहें मैं बदलूं, लेकिन
हर-वक्त मुझमें रहा हैं जो तू
बात यें सच्ची कितना संगीन लगता हैं
ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं

सफ़र दर सफ़र ये ज़िन्दगी चली थीं
छूटतें कभी तुम ये कहर ना बरसी थीं
हाथ ये
तुम्हारें ही हाथों में रखकर चले आएं
मौसमों को भी तो बडे बेदर्द से
यूं ही सर्द छोड आएं
मिलना मौत ही था दस्तूर-ए-ज़िंदगी
यूं ही बेवजह क्यूं किताबें पढतें आएं
खुद की ज़िंदगी मगर हीन लगता हैं
ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं
मौत में ही मुझको यकीन लगता हैं

नितेश वर्मा

बदसलूकियों की भी हो रही कैसी रियायत हैं

बदसलूकियों की भी हो रही कैसी रियायत हैं
जलाई जा रही हैं बेटिया ये कैसी रियासत हैं

खून,अपराध,बलात्कार,धन्धें यूं ही हो रहें हैं
कत्ल का सामान और ज़िन्दगी किफ़ायत हैं

मन पे बोझ,ये मन बांवरा ही समझ पाया हैं
माँ की बेटी मरी, हो रही ये कैसी हिमायत हैं

कोई चाह नहीं चोट करकें रखूं ध्यान सबका
दफ़नाएँ जा रहें हैं अपनें ये कैसी हिफ़ाजत हैं

महज़ चन्द पैसों के खातिर बुझ रहीं हैं साँस
अब तो मरें भी बोल बैठे ये कैसी सियासत हैं

नितेश वर्मा

वो हमारें दिल से लग-कर सहारों में आ गए

हम भूलें जो बात वो सारें तो इशारों में आ गए
वो हमारें दिल से लग-कर सहारों में आ गए

था ना-जानें वो कोनें का कमरा उदास कब से
सूरज की पहली बाहों से वो बहारों में आ गए

ज़हर, ज़न्नत, जनाजा क्या नाम दूं मैं इसका
जब से गयें हो तुम हम तो मजारों में आ गए

तंग, परेशां हालत में ना-जानें कबसे रहें हैं वो
खिडकी खुली हैं जबसें वो तो नज़ारों में आ गए

नितेश वर्मा

इन्कार की सूरत नहीं मुहब्बत जरूरी नहीं

इन्कार की सूरत नहीं मुहब्बत जरूरी नहीं
चेहरा पराया ही सहीं मगर वो फरेबी नहीं

किश्तों में बाँधी यें रिश्तों की चलती आँधी
डूबा हैं सेहरा मगर होंठों पे यें जुबानी नहीं

नितेश वर्मा

बचा अब-तक उसका गुरूर कितना हैं

बचा अब-तक उसका गुरूर कितना हैं
पहल-इश्क में था तो सुरूर कितना हैं

दिल किसी के ना होनें तक ही रिहा हैं
गैर की बाहों में महबूब क्रूर कितना हैं

मिला हैं जो वो तो पैगाम भी लाया हूँ
कब्र पे उसकें यें मिट्टी हुज़ूर कितना हैं

खुद की स्याहीं से मुझे बुनाया जिसनें
बहन की आँखों में बचा नूर कितना हैं

तौलतें रहें थे ता-उम्र अँधेरें में आकर
सबेरा देखा बाप ये मजबूर कितना हैं

निहार के उसनें गला ही घोंट दिया हैं
ये पडोसी मुल्क भी नासूर कितना हैं

नितेश वर्मा

Ummed E Kashmir By Nitesh Verma

A tribute to #IndianSoldiers,Thanks for everything.
#UmmedEKashmir #HumHain

बचा अब-तक उसका गुरूर कितना हैं
पहल-इश्क में था तो सुरूर कितना हैं

निहार के उसनें गला ही घोंट दिया हैं
ये पडोसी मुल्क भी नासूर कितना हैं

नितेश वर्मा

Nitesh Verma Poetry

कब, किससे, कहाँ, कितना, क्यूं और कैसे बोलना हैं; यह एक इंसान के समझ में होना चाहिएं वर्ना उसके बाद उस इंसान के पास पछतावा करनें के सिवा और कुछ नहीं बचता।

नितेश वर्मा

दीवाली ये खुशियाँ लेकर आई हैं

आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ। आप सभी का जीवन ऐसे ही जगमगाता रहें। शुभ-दीपावली।

चारों तरफ़ अब रौशनी छाई हैं
दीवाली ये खुशियाँ लेकर आई हैं

दीयें से खिली हर इक घर हैं
रंज़िशें कही दूर जा दफ़नाई हैं

सुख-शांति-समृद्धि सब आपकी हो
दिलों में यही चाह समाई हैं

लेकर उड गया मन बावरां कहीं
नफ़रतें-कुरीतियाँ दी आज़ जलाई हैं

सब अपनें साथ अपनों के रहें
यहीं तो सबकी अरजी कमाई हैं

नितेश वर्मा

अब ये ज़िन्दगी इक फासलों से गुजर रही हैं

अब ये ज़िन्दगी इक फासलों से गुजर रही हैं
बेकसक, बेअदब मौत मंज़रों से गुजर रही हैं

आँखों से हटा नहीं हैं पर्दा अब तक मेरे आकाँ
ये दुश्मनी हैं जो अब इक रिश्तों से गुजर रही हैं

दिल बेचैंन हैं तो हवा भी ना मिली हैं साँसों को
उल्फ़त के हैं जो मारें तो जाँ यूं हीं गुजर रही हैं

आँखों में शर्म अब किस बात की रहें अए वर्मा
जब हर तकलीफ़ों से ही ये ज़िंदगी गुजर रही हैं

नितेश वर्मा

इश्क में ना-जानें हम क्या-क्या कर आएं हैं

सारें ही बहानें अब तक वर्मा मैनें अपनाएं हैं
इश्क में ना-जानें हम क्या-क्या कर आएं हैं

दिल अपना ही कहीं इन अंधेरों में पडा रहा था
और ना-जानें इल्ज़ाम किस-किस के सर कर आएं हैं

नितेश वर्मा

वो कैसा हमदर्द हैं [Wo Kaisa Humdard Hai]

वो कैसा हमदर्द हैं
जो दे गया
मुझे बस दर्द हैं!

हवाएँ सर्द सी
चेहरा ज़र्द सा
चला था सब बस फर्ज़ सा!

तन्हा, उदास
था शायद वो मर्ज़ सा
ये ज़ुबां मेरा हैं बस दर्द का!

सुकूं अब कहीं नहीं
रहा कैसे
दिल मेरा ये खर्च सा!

टूटतें लफ़्ज़ बहकतें बातें
लिखता रहा कैसें
मैं भरा जोश गर्म सा!

टूट के बिखर गए अपनें सब
मगर
आँखों में दिखा नहीं कुछ शर्म सा!

नितेश वर्मा

Saturday, 18 October 2014

ये जो हैं तुम्हारें अपनें [Ye Jo Hai Tumhare Apne]

ये जो हैं तुम्हारें अपनें
तो अपनें क्यूं नहीं होतें

हर बात पे हैं इतनें रूठें
टूटें आईनें अपनें क्यूं नहीं होतें
दिल तो सबका समुन्दर ही हैं
पर खोटें सिक्कें सपनें क्यूं नहीं होतें
बीत चुका ही हैं वो लम्हा मेरा
खबर ये दिल में क्यूं नहीं होतें
ये जो हैं तुम्हारें अपनें
तो अपनें क्यूं नहीं होतें

वीरानियों में भी तलाशतें हैं जो
मुक्कमल शायर क्यूं नहीं होतें
तुम्हारी आँखों में डूबे चेहरें
रातें यें हमारें क्यूं नहीं होतें
दिल किसी और का टूटें भला
और हम यूं ही कहें
ये दर्द हमें क्यूं नहीं होतें
ये जो हैं तुम्हारें अपनें
तो अपनें क्यूं नहीं होतें

बन बैठें हैं सारें तुम्हारें ही
अखबारों में यें इश्तेहार क्यूं नहीं होतें
बनाया गुलाम तो गुलाम ही सही
मगर मगरुर तुम साथ क्यूं नहीं होतें
जुबां फिर दे के वो पलट गए वर्मा
ये आशिकी सफेद क्यूं नहीं होतें
हर बात में झूठ राजनीति हैं
ये आवाज़ अब चुप क्यूं नहीं होतें
ये जो हैं तुम्हारें अपनें
तो अपनें क्यूं नहीं होतें

नितेश वर्मा


मौसमों का रूख कितना बदल गया हैं

मौसमों का रूख कितना बदल गया हैं
इंसानों का मुख कितना बदल गया हैं
अब कोई रौशनी बची नहीं यहाँ वर्मा
और बेजुबाँ ये दुनिया कितना बदल गया हैं

नितेश वर्मा

कितनी बची हैं [Kitni Bachi Hai]

इन सूखें पत्तों की निशानियाँ कितनी बची हैं
अभ्भी मेरें दिल की कहानियाँ कितनी बची हैं

छोड के चला गया वो इक हमसफर मेरा मुझे
पर इस टूटे दिल की शैतानियाँ कितनी बची हैं

तोड के बंधन वो मेरी ही ख्यालत में रहती हैं
माँ के आँचल में मनमानियाँ कितनी बची हैं

हर इक गम को धो के वो पी लेता हैं इस-कदर
ढूँढता हैं समुन्दर जों उफानियाँ कितनी बची हैं

पत्थर को भी तराश के कीमती हैं बनाया उसनें
हर अवाज़ में खडी ये उँगलियाँ कितनी बची हैं

माँग के उसनें ये दूसरा,तीसरा घर सजा दिया
वर्मा ये तेरे नाम की दीवानियाँ कितनी बची हैं

नितेश वर्मा

Tuesday, 14 October 2014

अपना ना हैं [Apna Na Hai]

मुश्किल में हैं ये जां, मगर अब कुछ कहना ना हैं
तुम ही तुम हो यहाँ, मगर दिल अब अपना ना हैं

ये फिरता हैं अवारा, जो इन तंग गलियों में तेरें
डूबता हैं सहारा, मगर चाँद सयाना अपना ना हैं

कोई भूल गया हैं मुझे, बस इक कहानी मानकर
अब-तक हैं रूठा हाल, मगर बात शायराना ना हैं

तोड के फिर फेंक आएं हैं, दिली परिंदे पर अपनें
लूट लो अब सब तुम, जमाना अब शर्माना ना हैं

इम्तिहान ही दिया वर्मा, तो क्या जीया हैं सबनें
खून-खराबें पे हैं उतरें, मगर कोई जुर्माना ना हैं

नितेश वर्मा

Monday, 13 October 2014

जानें के बाद [Gujar Jane Ke Baad]

वो तो मुकर के ही गया था मुझसे मिलनें के बाद
अब क्यूं आ गया वो फिर गिर के संभलनें के बाद

ज़िंदा हैं आज़ भी वो मेरे दिल में कालें धुएं की तरह
कब-तक मरूगाँ मैं ज़ख्म-ए-दिल भर जानें के बाद

अब तो मौत की तलाश में हैं ये जां मुक्कमल मेरी
हो जायेगा वो मेरा इस ज़िंदगी के गुजर जानें के बाद

उसकी हर मुस्कान दिल के कोनें में कही ठहरी-सी हैं
अब तक नहीं हैं बिखरा चेहरा आईना टूट जानें के बाद

मुझमें रूठा हैं अब तक वो चेहरा तस्वीर का वर्मा
अब तो परिंदें भी लौट आएं दिन गुजर जानें के बाद

नितेश वर्मा

ये तन्हा दिल [Ye Tanha Dil]

मिला जो सुकून अभ्भी रहा यें तन्हा दिल
कैसे कहूं बिन-तेरे, कैसे रहा ये तन्हा दिल

हिसाबों की किताब, ये मंज़िल की परवाह
सताया कुछ ऐसा, रूठा रहा ये तन्हा दिल

झूठ पे झूठ, बस दिल लगा के बैठे हुएं हैं
किनारें आया हैं अब, मेरा ये तन्हा दिल

मालूम थीं मुझे हर-बात हर-रात की तरह
फैसला हुआ कैसा जो टूटा ये तन्हा दिल

लो अब सब मुकर के चलें ही गए होंगें ना
क्यूं हर लाचारी सहता रहा ये तन्हा दिल

नितेश वर्मा

कुछ ऐसा [Kuch Aisa]

हैं इंतजाम कुछ ऐसा, के लगा हर इल्ज़ाम मुझपे कुछ ऐसा
मैं मुहब्बत में हूँ जो लगा, मुझपें चढा हैं ये जाम कुछ ऐसा

अब तो वजह की कोई तालाश नहीं, फिरता ये कबीरा जैसा
टूटा तो था नहीं कभी दिल मेरा, जो बताया नाम कुछ ऐसा

नितेश वर्मा

हैं कई [Hai Kaiy]

के अब मंजिल हैं कई, सितारें हैं कई
भूला हैं आईना और शक्स बैठें हैं कई

तोड आया मैं इक बचा वजूद अपना
कहनें आयें थें जो वो बचे रिश्तें हैं कई

नितेश वर्मा

Nitesh Verma Poetry

..तेरी आँखों का जादू..
..मेरे वादों का कूसूर..
..लूट गए सब अपनें..
..यें हिसाबों का दौर..

..सुकूं भी सिमट के आई हैं..
..लबों पे छाई कैसी ये गहराई हैं..
..तुम..
..बस अब तुम ही इन ख्वाबों में..
..चल रही हैं ये ज़िन्दगी..
..तुम्हारें ही बातों में..

..नितेश वर्मा..

Monday, 6 October 2014

आया मैं [Aaya Main]

जब अदब से पेश होके सबसे आया मैं
लौट फिर इस देश को अपनें आया मैं

इज्जत बची रही इन बेशर्म आँखों की
लूटी थीं जब कायनात तो रो आया मैं

दरिया पार की समुन्दर की प्यास थीं
भूख थीं बडी परिंदो को मार आया मैं

नफरत ही रही थीं ता-उम्र इस जहन में
मरा तो कफ़न संग सब जला आया मैं

बडी चाहत थीं सवारें हम भी इक जाँ
रिश्वत के आगें ये सब गँवा आया मैं

हैं कोई बात ऐसी जो हम बताएँ वर्मा
जब भूले सब तो घर वो भूला आया मैं

नितेश वर्मा

Sunday, 5 October 2014

बारिशों का मौसम [Baarisho Ka Mausam]

लो चलो सही अब इक घर हमारा भी आया
तुम्हारें ही जिद में एक हमारा भी जिद आया

बारिशों की मौसम में की हुई शायरी दिल को उसी बूंद की तरह लगती हैं जैसे हजारों ख्वाहिशें किसी से बरसों के मिलनें पे होती हैं। दीवाना बनाती हुई बारिशों की बूंदें जब-जब हाथ से स्पर्श करती हुई जाती हैं, कोई पुरानी दिल को लगी हुई यादें यूं ही बिन वजह, सीनें में दफन यादें शक्लों का रूप ले के आँखों में छा जाती हैं। अभिव्यक्ति शब्दों के बंधन से परे होती हैं। मुश्किल होता हैं उन लम्हों को बाँध पाना, कुछ कहना व्यर्थ सा लगता हैं। सुकूं दे जानें वाली पल और भी हसीं हो जाती हैं जब शक्लें महबूब का रूप ले लें। आशिकी कभी बंधन, लाज, हयां, शर्म के घेरें में नहीं रही हैं। कोई समाज, जात या सत्ताधारी उनपें अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर पाएं हैं। प्यार सबसे मुक्त होता हैं, वो दिल के बंधन से होता हैं, जहाँ बस एहसास ही एहसास होते हैं। 

मेरी भी बात दर-असल हमारी बात भी इन्हीं कहीं किसी बातों से शुरू होती हैं। शायद वो बारिश ना होती, वो बेचैंन शाम ना होती, वो मुश्किलात ना होतें तो शायद यें ज़िन्दगी कहीं और होती। आज भी याद हैं मुझे वो बेशर्म आँखें जो मुझपें आके यूं ही बेवजह ठहर जाती थीं। मुझे अपना बना जाती थीं, दिल में कहीं इक ख्वाब या अरमान आप जो भी कहो जगा जाती थीं। दिल ऐसा ही होता हैं, प्यार यूं ही सबको पागल कर जाती हैं। दिल का धडकना और नजरों का मिलना-झुकना ही बस सब कुछ बतानें को काँफी होता हैं। मंजर बहोत सारें गुजरतें हैं इस हयात से लेकिन मुहब्बत इन सबसे दूर, बहोत दूर समझ से परें वाली होती हैं। चाहता था लिखनें से पहलें कहानी बताना मगर अब दिल की वैसी बात नहीं, कुछ बातों से दूरी ही अच्छी लगती हैं। बार-बार उसके बारें में सोचना और फिर उससे मुँह फेर लेना ये आशिकी में ही हो सकता हैं। कौन यूं ही बेवजह बातों के बात करता हैं, कौन एक चेहरें पे ता-उम्र मरता हैं, कौन-कौन ये सब करता हैं। 

सवालों में ही उलझ जातें हैं यकीनन मुहब्बत में लोग मर जातें हैं।
कहतें हैं सब दिल से अपना मुझे मगर मय्यत पे शोर कर जातें हैं॥


Saturday, 4 October 2014

दे जाती हैं [De Jati Hai]

मेरी आवाजों को जो आवाज दे जाती हैं
अपनें होनें का मुझे एहसास दे जाती हैं

मैं बुलाऊँ जो सीनें से तस्वीर लगाकर
वो लबों पे मेरे अपनें लब दे जाती हैं

बहाना ना कोई खता की मैनें इश्क में
वो यूं ही बेवजह सौ शक्लें दे जाती हैं

मना के रक्खा था मैनें जिसे बाहों में
ज़ुल्फ़ों से अपनें वो इक शमां दे जाती हैं

हर मामलें में वो मुझसे बेहतर ही रही
इस तरह छोड के जानें की वजह दे जाती हैं

रोक ना पाया था मैं उसे मुश्किल था सब
तन्हा रात तलें वो एक सपना दे जाती हैं

Thursday, 2 October 2014

पूरी कर दी तुमनें [Puri Kar Di Tumne]

इक ख्वाब मेरी अधूरी पूरी कर दी तुमनें 
चलो रही सारी हिसाब पूरी कर दी तुमनें 

मिल तो जाएं वो सब मेरे अपनें ही कही
यूं ही बेवजह ख्वाहिशें पूरी कर दी तुमनें 

नाम दिल की लिक्खें खतों पे उतरनें लगें
इन बारिशों की हरजुबां पूरी कर दी तुमनें 

वो आवाज कर जाती हैं इन कानों में मेरे
आहिस्ता ही सही रात पूरी कर दी तुमनें 

भला दिल का भी कोई कभी दुश्मन हैं रहा
मेरे इस परेशां को क्यूं पूरी कर दी तुमनें

गींला तो अब बस जमानें से बाकी हैं वर्मा
अधूरी ये ज़िन्दगी यूं ही पूरी कर दी तुमनें 

नितेश वर्मा

Monday, 29 September 2014

निसार कर दूं [Nisar Kar Doon]

तुम जो कहो तो मैं इश्क का इज़हार कर दूं
खातिर तुम्हारें मैं जां भी ये निसार कर दूं

तस्वीर से निकल बाहों में चली आई हो तुम
कहो जो तुम तो तेरी ज़ुल्फ़ों में मैं रात कर दूं

इन लबों से लब लगकर भी कुछ कहते हैं जां
हुक्म जो करो तो मैं भी ये आँखें चार कर दूं

लेकर तो ये सब मैं गुजरा ही था अए वर्मा
तुम जो कहो तो वो मुक्कमल किताब रख दूं

नितेश वर्मा

Sunday, 28 September 2014

खंज़र हैं इतनें [Khanjar Hai Itne]

हैं उल्झन ऐसी की यें आवाज़ें भी नम हैं
खंज़र हैं इतनें, मगर कातिल ही कम हैं

सहम गयी हैं ये फ़िजा, ये आँखें, ये रातें
बेवजह थीं जो बारिश गयी आज़ थम हैं

सबनें हिस्सों से हैं इक कहानी बताया
कट गयी ज़ुबां मेरी यें साँसें जो कम हैं

सबर रख-कर इक इम्तिहान भी दे दी
मगर थीं जो बातें उसमें आज़ भी दम हैं

उठा लो इन परिंदों का ये बसा बसेरा तुम
जब ये जमाना ही लूट के खानें में रम हैं

नितेश वर्मा

..मुहब्बत वो मिलता नहीं.. [Muhabbat Wo Milta Nahi]

..अब सुकूं कहीं मिलता नहीं..
..मिल तो जाएं वो..
..मगर मुहब्बत वो मिलता नहीं..

..चाहता था मैं भी बताना ज़मानें को..
..मगर जमानें को भी कहीं..
..अब सुकूं मिलता नहीं..

..कहे तो सब एक साथ थें मेरे..
..मगर बेकफ़न कब तक थी लाश..
..खबर ये मिलता नहीं..

..आ जाऐंगे इस जद में सब..
..मगर काफ़िरों को..
..कभी ठिकाना मिलता नहीं..

..यूं ही गर उठती रही आवाज़ मेरी..
..हो जाऐंगे सबके आँखें नम..
..मगर बारिशों में..
..कभी कोई खबर मिलता नहीं..

..टूट चूकां हैं मुहब्बत..
..कही हर अफसानों से..
..मगर इन परिन्दों को कभी..
..ये खबर मिलता नहीं..

..नितेश वर्मा..

हमारें सब [Humare Sab]

किस कदर रूठे हैं हमसे हमारें सब
इल्जाम सर कर दिया हैं हमारें सब

अब मनानें को मैं किस गली जाऊँ
हमसे ही रूठे बैठे हैं जो हमारें सब

बदलें की नफ़रत कितनी मारती हैं
हैंरा हैं हालत देख के ये हमारें सब

जो सुकूं मिलता किसी के बाहों में
चले आतें किसी बहानें हमारें सब

लो हद हो गयी इस बात की वर्मा
मुहब्बत में क्यूं मरे ये हमारें सब

नितेश वर्मा

कर लिया उसनें [Kar Liya Usne]

हैंरानियत को भी जो पढ लिया उसनें
मुहब्बत ये कैसा अब कर लिया उसनें

ये तिनका ही सहीं जो मेरे नसीब का
इस नसीब का यकीं जो कर लिया उसनें

चल-कर ही इस सफर का थकान मिटा
आँखों से जो मेरें पानी पी लिया उसनें

इंतज़ार की हैं उसनें मेरे आने तक की
मिला जो ना खुद को जला लिया उसनें

रूठा था दिल जो किसी बात पे, देख अब
तस्वीर को मेरे सीनें से लगा लिया उसनें

उसनें शायद ठीक ही कहा था कभी वर्मा
हिसाबों का जो किताब कर लिया उसनें

नितेश वर्मा

लिक्खें जाऐंगे [Likhhe Jayenge]

इन्तकाम पे जो सब उतर आयेंगे
इंसान अबके हैवान ही कहे जाऐंगे

मन किस कदर रूठा है सबका यहाँ
हिसाब अब सब यहाँ लिक्खें जाऐंगे

जो होना था हो चुकां सब यहाँ मेरा
दुश्मनी ही सहीं अब निभाएं जाऐंगे

कितना कमज़र्फ़ निकला मन मेरा
मुद्दतों तक ये जुबाँ सताएं जाऐंगे

अब ना की हैं उसने कोई फरेबी वादें
फिर भी वो शायद कहीं मुकर जाऐंगे

वो आसमां से सफ़र कितना सुहाना था
ख्वाबों में फिर वो शक्ल बनाएं जाऐंगे

नितेश वर्मा

करता हैं [Karta Hai]

तेरें यादों में जो हुआ था हाल मेरा
सुरूर अब भी ये बताया करता हैं

इंसानों के गम कभी छुपतें ही नहीं
भरी रात ख्वाब ये सताया करता हैं

अब तक जो रहा था माँ के आँचल में
अब वो भरे बाज़ार बेटियाँ उठाया करता हैं

एहसान फ़रामोश निकल गए परिन्दे सारें
घनी रात ये आसमां बताया करता हैं

लेकर चला था जो इक उम्मीद मुझसे
कैसे कहूँ अब भी वो याद आया करता हैं

लग चुकी हैं हायं इस ज़माने को वर्मा
फ़ितरत ये तेरा अब दिखाया करता हैं

नितेश वर्मा

Monday, 22 September 2014

दो टुक [Do Took]

एक वक्त था जब कई उम्मीदें जुडी हुई थीं इस नाम से मेरा बेटा ये बनेगा, वो बनेगा, कभी माँ तो कभी पापा तो कभी हित-रिश्तेदार, परिवार वालें सब कोई ना कोई उम्मीदें लगाकर ही बैठे हुएं थें, आखिर हो भी क्यूं ना घर का वारिश जो था मैं। आप लोगों को शायद ये वारिश वाली बात समझ में ना आएं लेकिन पहलें का वक्त हुआ करता था जिसमें सभी रिवाज़ों, समाज़ो और रीतियों को अपनें सर लेकर चलना पडता था। हालांकि मैं इसे बोझ ना अभी समझता हूँ और ना ही कभी इसके बारें में सोचा था, लेकिन हाँ घबराहट हर वक्त हुआ करती थीं।

इतनी उम्मीदें..
एक नन्ही सी जान.. विरोध का भाव.. दोस्त होते हुएं भी अकेलापन शायद कोई गर्ल-फ़्रेंड ना थीं इसलिए इतना खिंचाव बना रहा था। खैंर जो होना था हुआ मेरे साथ और सबकी उम्मीदों को मैनें पानी में मिला दिया एक शराब के बोतल के साथ। लत लग गयी थीं, चाह कर भी कुछ ना कर पा रहा था या शायद हर शाम बोतल की पुकार ने मुझे कहीं जकेड रक्खा था या सबकी उम्मीदों का बोझ अब मेरा सर सह नहीं पा रहा था। जब भी कोई खत या कोई मिलनें आया करता लाखों सवालें, उम्मीदें, परेशानियाँ ना जानें किन-किन चीज़ों की पहाडे अपनें साथ लाया करता। इन सब चीजों से मैं हार गया था, माँ की उम्मीदें अब बस नाउम्मीद का नाम रहकर रह गयी थीं। बेटा इंजीनियर बने भले से वो ऊँचा औदा ना हासिल कर पाएं, कोई परवाह नहीं लेकिन बने जरूर। अपनें कंघन को गिरवीं रखकर भेजा था माँ ने शहर मुझको, मैं यें किसे बताता किसे सुनाता अब की तरह तो पहलें गर्ल-फ़्रेंड भी नहीं हुआ करती जो मेरी परेशानियों को सुनती।

थोडा हास्यंपद हो सकता हैं मेरा कहना लेकिन जब कोई सुननें वाला ना हो तो बस हैंरानियाँ और परेशानियों के सिवा और कुछ नहीं होता। मगर ये बातें सबको मार्मिक ही करती हैं.. सबके दिलों को टींसती रहती हैं.. खफ़ा होनें का एक वजह बना देती हैं, कुछ के दिलों में उतरना तो कुछ के दिलों में चुंभना ये तो बस बातें ही किया करती हैं। अगर मैं ये समझ के भी ऐसी बातें करूं तो इससे बडी अपमान की बात क्या हो सकती हैं। आज़-तक वो बात समझ में नहीं आई क्यूं माँ ने अपना सब कुछ बस एक मेरे भविष्य में लूटा दिया.. पापा ने अपनी पूरी कमाई आखिर क्यूं मुझपे क्यूं लूटा दी। मैं समझ नहीं पाया था ना ही मैं अब तक समझ पाया हूँ।

मुझे लेखक बनना था शायर बनके बस रह गया.. कभी कभार कुछ थोडा बहोत लेखको जैसे लिख लेता हूँ लेकिन वो हर बार नहीं होता कहानियाँ बुननी मुश्किल होती हैं.. लम्हें में तो शायरी ही की जा सकती हैं। ज़िन्दगी मैनें दर-असल लम्हों में ही जीया था कभी कभार जब घनी काली अंधेरी रातों में चाय की चुस्कियों को लेकर अपनें शहर के बारें में छत पे अकेला बैठा ये सोचा करता था कि आखिर क्यूं कभी मेरें अपनों ने मुझे वो क्यूं नहीं करने दिया जिसे मैं करना चाहता था। लेकिन अब समझ आता हैं मैं चाहता ही क्या था दिल मेरा हमेशा से चोर हुआ करता था कभी किसी की तो कभी किसी की हर वक्त मेरे घर पडोसीयों से मेरे हवालें के शिकायत आया करती थीं। माँ द्रवित होती थीं लेकिन उन्हें मुझमें इक उम्मीद की किरण हर वक्त दिखाई देती थीं। शिकायतों का क्या था वो तो कल बंद ही हो जानी थीं। माँ को सब इतना कुछ कैसे पता होता था। शायद उनका ही असर रहा होगा जो मैं इतने काम के, कमाल के शे'र कर लेता हूँ।

खलल आज़ भी उस बात को लेकर हैं माँ के गिरवीं कंघन को ना छुडा पाया। चाहता था मैं कुछ करू लेकिन कभी वक्त तो कभी अपनों ने मुझसे मुँह मोड लिया। आखिर कब तलक कोई साथ देता हैं मैनें ये सोचतें हुएं उन्हें नज़रंदाज या माफ़ आप जो कहों कर दिया। अब कोई पीडा नहीं हैं ना मुझे ही और ना ही मेरे अपनें को माँ-पापा को गुजरें अब पूरें 11 साल हो गए हैं। पहले मेरी मजबूरियों के समझनें वाला भी कोई था अब तो बस तन्हाई डंसती हैं.. आखें रूलाती हैं.. कानें वो आवाज़ तलाशती हैं जो उम्मीदों से भरें था.. आज़ भी निवालों का हाथ भरें रात मुझे जगा दिया करता हैं। क्यूं ऐसा नहीं होता लोगों के बाद ये यादें क्यूं नहीं उनके साथ ही चली जाया करती हैं। लेकिन मैं क्या करूं खुद को हारा हुआ कैसे स्वींकार करूं। इतनी हिम्मत कहाँ बची हैं मुझमें अब तो दम भी घुंटता रहता हैं इस माहौल में.. उबन सी बसी हुई हैं इस सरकार में.. इस राज्य में। देश-हित की बातें किया करतें थें पापा, कैसे हमारें पुरखों ने अपनें देश के लिए अपना खून बहाया था, देश की भक्ति होती थीं।

ठीक ही हुआ आज़ पापा नहीं रहें वर्ना ऐसा हाल.. क्या कहता मैं। आखिर युवा पीढीं में होना एक ज़िम्मेदार होना और उसके हैसियत से ये कहना कुछ गलत नहीं होगा.. क्यूंकि आज़ आँखों के सामनें सब हो जाता हैं लेकिन ज़ुबां जाँ की फिक्र में खामोश रह जाती हैं। अब बस कुछ कहना नहीं चाहता और ना ही आपकों कहीं उलझानां चाहता हूँ। क्यूं और कैसे..? तलाश ये जारी रहेगी माँ की उम्मीदें थोडी ही सही लेकिन पूरी जरूर होगी और उनके कंघन के बारें में भी मैनें सोचा हैं एक दिन ऐसा आयेगा जब मैं पापा को भी एक भरी उम्मीद से अपनी नज़रें मिला पाऊँगा।

नितेश वर्मा

Friday, 19 September 2014

परिंदे ये देखते रहें बैठे अपने शाख पे

लौट आयें हैं हम फिर से उसी बात पे
दफ़न कर रक्खा था जिसे कई रात से

गुज़र गयी वो तूफ़ां अंधेरी काली रात
मकाँ अब तक हैं रुसवां इस मात पे

किस्मत का जो लिखा हैं मिटाया नहीं
आँखें आज भी हैंरां हैं इस इम्तिहां पे

जल गया शहर पूरा संग मेरे राख के
परिंदे ये देखते रहें बैठे अपने शाख पे

आज तो बस धुँआ धुँआ हैं कमरे में
चेहरें रूके हैं बस तेरे इक इंतज़ार में

कुसूर बस मेरा इतना ही था ऐ वर्मा
उसके लबों में डूबा रहा इक इमां पे

नितेश वर्मा

आँखें तेरी [Aankhein Teri]

इन आँखों से चूम लूं मैं यें पढी आँखें तेरी
लबों से चुरा लूं मैं थमीं हर इक नज़र तेरी

ख्बावों का मतलब कुछ और बदल देगा
सीनें में तू आ तो इक चेहरा उतार लूं तेरी

ये फ़िज़ा तो यूं ही मुझे इशारा ना बताती हैं
बाहों में जो तू आ तो ये ज़ुल्फें संवार दूं तेरी

लिक्खे खत को जो जला दूं मैं फिकर क्या
करीब आ मैं ये गलत-फहमीं उतार दूं तेरी

नितेश वर्मा

लम्हें का [Lamhein Ka]

हैं मुझे प्यार फिर से उसी किसी कहें लम्हें का
किया था जो मैनें कभी इकरार जिस लम्हें का

मुहब्बत जगाता फिरता हैं वो जो आँखों में मेरे
दर्द हैं जो वो दिखाया नहीं कभी उस लम्हें का

दिल की खामोशियाँ अब जुबाँ की धमकियाँ हैं
तुम्हें दिखाया था मैनें जो ख्वाब इस लम्हें का

इंतज़ार में ज़िन्दगी बस अब कट के रह गयी
या खुदा! मिलता नहीं सुकूँ मेरे कहें लम्हें का

रह नहीं सकता वो बिन मेरे मेरे सोहबत के वर्मा
हवाएँ भी याद दिलाती हैं तेरे संग हर लम्हें का

नितेश वर्मा


क्यूं जीयां हैं [Kyu Jiya Hai]

नाउम्मीद होकर भी जो जीयां हैं
बिन मक्सद भी वो क्यूं जीयां हैं

धूल गए हैं जो सब चेहरें बेंरग तेरे
कश्ती से तू समुन्दर क्यूं पीया हैं

मेरा जां लेना ना था बस का तेरे
तू ये समझा तो अबतक जीयां हैं

मग़र आँखें तेरी आज़ भी खामोश
तेरी लफ़्ज़ों को अब ये क्या हुआ हैं

बिछडता बस एहसास हैं दिल में
नम ज़िन्दगी अबतक क्यूं किया हैं

नितेश वर्मा

Monday, 15 September 2014

जाती हैं [Jaati Hai]

अब भी वो तकलीफ़ दे जाती हैं
जबभी वो मुझे याद आ जाती हैं

भूलाता हूँ मैं जो चेहरें बदल के
बेहर्श वो आँखों में आ जाती हैं

मेरे रूह को सुकूं आता ही नहीं
और वो सीनें में उतर जाती हैं

इस कदर सा परेशां हूँ मैं अब
नाम ज़ुबां पे यूं ही आ जाती हैं

फिक्र ना कोई मलाल हैं उसका
क्यूं बिन वज़ह वो रूठ जाती हैं

मेरे दिल की और तस्वीर क्या
बाहों में जो वो अब आ जाती हैं

नितेश वर्मा

Sunday, 14 September 2014

हिन्दी दिवस [Hindi Diwas]

हिन्दी हमारें और आपकें सबकों दिलों से जुडी हमारें अपनेतित्वय का एक प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यह हमें हिन्दुस्तानी होनें का प्रमाण देती हैं। भाषा जब एक होती है तो एक हद तक समझ भी एक ही हो जाती हैं।
आज हिन्दी दिवस हैं आज का दिन हमारें जीवन में हर्षों-उल्लास ले के आयें यही हमारी कामना हैं। आप सभी को हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं।

नितेश वर्मा

लोग ज़िन्दा जलातें रह गयें [Log Zinda Jalate Rah Gaye]

इस ग़म में भी जीएं तो अब क्या जियें
अपना कोई रहा नहीं अब हम क्या कहें

वो जो अपनी नफ़रत जता कर चले गए
दिल बेचैंन ना-जानें क्यूं मनाते रह गयें

उनकी सितम, उनके वादें और उनके इरादें
क्यूं ना समझ हम उनको उठातें चले गयें

लौट के आया ही था सुबह का भूला वो इंसा
कमरें का आईना उसे आँसू दिखातें रह गयें

सब देख कर भी वो अब तक खामोश हैं रहीं
और इल्ज़ाम सब उसके सर गिनातें रह गयें

हैंरा हैं अब तक मेरी की उम्मीदों की हर रातें
नसीब कैसा जो लोग ज़िन्दा जलातें रह गयें

नितेश वर्मा

बंद कर दिया [Band Kar Diya]

मैनें अब ये मुस्कुरानां भी बंद कर दिया
जबसे तुमनें मुझे सताना बंद कर दिया

तुझसे ही जुडी थीं हरेक थमीं साँसे मेरी
जुल्फों ने अब बताना भी बंद कर दिया

नज़र की खामोशी दूर तक चली आई थीं
आईना ने अब चेहरा बताना बंद कर दिया

नितेश वर्मा

Saturday, 13 September 2014

इन होंठों से मत पूछों [In Hotho Se Mat Puchho]

बदलतें मौसम से अब ना पूछों ये बे-रंग कैसा हैं
मेरी बातों को ना समझों तुम ये व्यंग्य कैसा हैं

लूट अब महज रोटियों तक की ही होती हैं यहाँ
डाकूओं से मत पूछों ये हिसाबे-किताब कैसा हैं

फिर से ले आया जो किनारा ये समुन्दर का
सीपियों से मत पूछों मोतियों का विरह कैसा हैं

इस भरी ठंडी धूंध में भी जो निकल पडता हैं
उस बाप से मत पूछों कंबल का छावं कैसा हैं

आसमानों में दिन गुजार के जो लौट आये हैं
उन परिन्दों से मत पूछों अब ये शाम कैसा हैं

बे-वजह जो दिल तोड के खामोश बैठा रहा हैं
ये मुहब्बत में किया अपराध मत पूछो कैसा हैं

कुछ ख्वाहिशी लम्हें ही गुजारें थें उसनें बाहों में मेरें
मेरे दिल का जो हुआ सुकूं अब इन होंठों से मत पूछों

नितेश वर्मा

आज वो शर्मिंदा हैं [Aaj Wo Sharminda Hai]

इस इल्जाम को लिये वो जो ज़िन्दा हैं
करता था जो प्यार आज वो शर्मिंदा हैं
जुल्फें सवारं लेना अदा कुछ और था
तेरा मुकर जाना ये बहोत ही गंदा था

नितेश वर्मा

जां भी हारी हैं [Jaa Bhi Haari Hai]

यह उम्र अब मुझपें कितनी भारी हैं
बिन तेरे तो अब यें जां भी हारी हैं

संभाला जाता नहीं आँखों का दरियां
यें इक कतरा हैं जो बेहोशी तारी हैं

बना लिया जो मैनें फिरसे मकाँ वहीं
रूठां हैं जैसे की कोई फतवा जारी हैं

माँगता था जो दानें बिन आहटों के
परिंदा सहमा हैं जैसे अबला नारी हैं

चैंन नहीं उसे इक पल का भी यहाँ
बेवजह उसनें कही हैं बातें सारी हैं

नितेश वर्मा

चेहरा [Chehra]

हरेक इंसान के ज़िन्दगी में एक ऐसा चेहरा होता हैं जो उसके सुकूं, उसके रूह, उसके आत्मीयता से जुडा हुआ होता हैं। वो उस चेहरें में इक मदहोशी, इक कामयाबी, इस मंज़िल, इक प्यार को पाता हैं। या यूं कहें तो वो उसे अपनी ज़िन्दगी मान बैठता हैं। चेहरा किसी का भी हो सकता हैं। रूप बदल सकते हैं लेकिन मायनें तो बस वही रहता हैं जो एक दिल को दूसरें दिल से जोड दें। भावुकता एक अलग विचार हैं और प्रेम अलग। चेहरें से ही प्यार और नफरत होती हैं। चेहरा ही इक आईना और इक माध्यम हैं जो मनुष्य के विचार को प्रदर्शित करती हैं। मन भावनाएं को साकार एक चेहरा ही करता हैं। यहाँ तक तो इंसान भगवान को ही एक काल्पनिक रूप में स्वीकार करता हैं जबकि उसनें ना कभी उन्हें देखा हो। यहीं तक सोच हैं शब्दों को यहीं तक बाँधनें की क्षमता क्यूंकि भगवान से आगें की कोई बात हो तो वो मेरी पहोच से काफी दूर हैं जो मैं इस ज़िन्दगी में तो नहीं पा सकता।

बदलना चाहा था
अब तक जिस चेहरें नें
डूबा हैं वो खुद
अब तक इक चेहरें में
कोई नमीं रही नहीं
बची इन आँखों में
खुदा कैसे पत्थर में
ढूँढतें कोई चेहरें तेरे
मैं मुक्कमिल था शायद
आईना ही शराबी निकला
बेपरवाह झूमतां हैं
बाहों में लिये सपनें कई
कैसे रंग रंगता हैं
चेहरों पे भी चेहरें
कोई कैसे रखता हैं
पुराना गर मेरा तस्वीर हुआ
कोना तो सही
मगर उसे नसीब तो कुछ हुआ
बदलनें लगे है अब तो
आँखों से किये इशारें भी
चूमतां था जो लब
जलनें लगे हैं उफ्फ!
समुन्दर के लहरों से भी
बदनसीब हारेगा
करनें दो मन की मर्जी उसे
परवाह नहीं कोई इतंजार नहीं
मुहब्बत हैं क्या कोई एतबार नहीं
मैं तो ना अब कुछ कहूँगा
इसे जब खुद
इसे खुद का ख्याल नहीं
चेहरा उदास हैं
मगर दिल की बात हैं
तो वो भी बेपरवाह हैं
सुनें भी तो कौन
अब इसे पढें तो कौन
चेहरा ही हैं दिखे भी तो क्या
जो गम में रहें
यादों से कहा तो सही
अब जुबां से कौन कहें
बंद कर दी तलाश वहीं
मुहब्बत में लगी थीं
कैसी बिन बुझी वो आग
आज भी सताया हैं
दिल को फिर से
जब वो चेहरा याद आया हैं
जब वो चेहरा याद आया हैं।

..नितेश वर्मा..

लिखना [Likhna]

पहलें लिखना एक शौक था.. फिर आदत सी बन गयी कुछ इसकी.. धीरें-धीरें ये एक काम सा लगनें लगा.. अब तो हालात कुछ ऐसी हो गयी हैं की लिखना बस एक मजबूरी बन के रह गयी हैं.. ना ही मुझमें ही कुछ ऐसा बचा हैं और ना ही जमानें में जो फिर से एक शौक सा लगें।
बस हर दिन एक रात का इंतजार.. आपका इंतजार..
फुरसत में ही तो कुछ बातें की जा सकती है.. आपकी राय मेरी लेखनी में स्याहीं का काम करती हैं। आप सदा ऐसे ही मुझसे और मेरी जिन्दगी में बनें रहें।

रोज-रोज की वहीं शायरी और वही ग़ज़ल सोचा आज कुछ बातें ही करता चलूं। आखिर एक पहचान भी तो होनी चाहिएं। आप मुझसे कुछ जानना चाहतें हो तो नि:संकोच पूछ सकते हैं।

नितेश वर्मा

कहता हैं [Kahta Hai]

मुझसे ही मेरा अक्स अब कुछ कहता हैं
करूं सौ सवाल तो इक जवाब कहता हैं

बदल गई हैं मेरी बे-लगाम नज़र मासूम
मेरे कमरें का कोना ये मलाल कहता हैं

हाथों में खन्ज़र और चेहरें पे करके फरेब
और वो सियासती मुझको गद्दार कहता है

खुद पे जो बीता उसे अब-तक याद रहा हैं
जो मेरी तिश्नगी को अब सराब कहता है [तिश्नगी=प्यास] [सराब= मृगतृष्णा]

देश के नाम पर मिटकर जो शहीद हैं सब
जमाना उन्हें आज बस बदनाम कहता हैं

नितेश वर्मा

मिलता नहीं [Milta Nahi]

मुझसे मेरा ही ख्याल मिलता नहीं
दिल खफ़ा है मगर वो मिलता नहीं

भरें बाजार था जिसे तालाशता मैं
वो हवाओं में भी अब मिलता नहीं

जैसे को तैसा हर कहानी का उपदेश
कहता है किताब मगर मिलता नहीं

नासूर दिल पे भी इक राहत दिखी है
मगर बीमारी में भात मिलता नहीं

खफ़ा होना ही हिसाब का था बस तेरें
मगर मरनें के बाद कोई मिलता नहीं

चला था परिन्दा इक आसमां चुरा के
मगर सुकूं उसे अब कहीं मिलता नहीं

नितेश वर्मा

डाल देता है [Daal Deta Hai]

मेरे हाथों में जो वो हाथ डाल देता हैं
कितना खुबसूरत एहसास डाल देता हैं

मैं पतंग की डोर में इक गांठ सा हूँ
वो मांझे में मुझकों कैसे डाल देता है

नाम लेना मुश्किल हैं मेरा जमानें में
वो एतिहातन कागज में डाल देता है

हर्श की फिक्र फिर से सताती रही हैं
ख्याल ये सीनें में खंजर डाल देता है

रूठ के जो ये तुम मुझसे बेगानी रही
ईश्क में ये सबक खलल डाल देता हैं

फिर से वही बात दुहराई हैं मैनें वर्मा
जैसे चोर दरवाजें पे रोटी डाल देता हैं

नितेश वर्मा

चेहरा भूल आया है आईना अक्स अपना

चेहरा भूल आया है आईना अक्स अपना
दिखता था जो पुराना कोई शक्स अपना

सलवटों सी बस बची रही ज़िन्दगी मौला
मिलता कहाँ कोई जिसमें हो रक्त अपना

नितेश वर्मा

इक सबक बाकी हैं [ik Sabak Baaki Hai]

जा रही है जान बस इक सबक बाकी हैं
मैं ज़िंदा हूँ मगर ये सौ कफ़न हाजिर हैं

लेके उड गया ख्वाब परिन्दा आँगन का
सीनें में था जज्बात आँखों में हाजिर हैं

पुरानें मकानों की तरह तस्वीर बनाई हैं
जो उतर आओं तुम तो ये दिल हाजिर हैं

क्या हुआ जो ये जमाना मतलबी हुआ
मेरी आँखों में देख ज़रा राज़ हाजिर है

होंगी कोई और उल्झी सी बातें तेरी तो
तुम्हारें आलिंगन में तो ये बाहें हाजिर है

मिट गए लिक्खें सारें आशिकों के नाम
और तुमपे मुक्कमल किताब हाजिर है

नितेश वर्मा

ज़िन्दगी बुझ सी गयी है [Zindagi bujh Si Gayi Hai]

क्यूं बेवजह ये ज़िन्दगी बुझ सी गयी है
साँसें भी थमीं और जुबां रूक सी गयी है

घिस के खराब हुए है सिक्कें सारें सुहानें
आँखों की ये ख्वाब क्यूं सूझं सी गयी है

बदलें की आग में झुंलस के सब राख है
बारिश की हुई नमीं क्यूं रूठ सी गयी है

माना है गाँव का बागीचा मेरा पुराना ही
नहर की ठंडी पानी क्यूं सूख सी गयी है

चलो कर आए हिसाब हम अपना पुराना
बदला खून का और ज़मीं सूख सी गयी है

दिल बेजान है आज भी कुछ इस कदर
टूटा है दिल और सूरत बिखर सी गयी है

नितेश वर्मा




ख्वाब सी लगी [Khwab Si Lagi]

हर हँसी रात इक ख्वाब सी लगी
तेरी हर साथ भी खरास सी लगी

दुनिया बदलने को चला था मैं
और रिश्तेदारों की परवाह लगी

मुठ्ठी से रेंत गिरके सँभल से गए
समुन्दर को खुद की आह लगी

हो जो इक कशिश आँखों में मेरे
मुझे दर्द में भी तेरी फरियाद लगी

हैं छुपा कहाँ मेरे कत्ल का सामान
खंज़र तो मुझे मीलों दूर की लगी

सीनें में बस इक ही बात थीं खली
क्यूं बेवजह जमानें की लात लगी

नितेश वर्मा

Sunday, 31 August 2014

अच्छा लगा [Achha Laga]

हुआ दिल परेशान तो आँखों में आँसू अच्छा लगा
जैसे कडी धूप में था तो हुआ बारिश अच्छा लगा

सब संग-ए-मर-मर की तालाश में निकलते गए
मगर मुझे तो वही मेरा इक मकाँ अच्छा लगा

दौलत के नशें में चूर सब खून-खराबें को उतर आए
मगर माँ की थीं जो नसीहत वही मुझे अच्छा लगा

अब क्या परहेज़ करके रक्खूं ख्याल अपना ही मैं
ग़र घुट-घुट के जीना हो तो मरना ही अच्छा लगा

सौ बार कहकर जो जुबाँ से पलट कर निकले अपनें
इस ग़म में चेहरें पे खिला मुस्कान तो अच्छा लगा

आशिकों की महफिल से गुजर के अब क्या देखना
तिरंगें में लिपटा हो लाश ख्वाब इक ये अच्छा लगा

नितेश वर्मा


Saturday, 30 August 2014

खंजर कई [Khanjar Kai]

बेसबर चले आ रहे है मौत के मंजर कई
निकालें थें जो मैंनें मासूम पे खंजर कई

दिल की गहराइयों पे भी वो उखडा सा है
इक मासूम चेहरा जिनपे सजे है पहरें कई

मान लिया जो सबनें बेटियां बेगानी ही हैं
घुट के मरे कही रक्खे है बंद कमरें कई

वो उडता परिंदा भी अब बेचैंन-सा रहता हैं
ढूंढता है जीभर सुकूँ लिये खुद की नजरे कई

इस सोच को भी दरिया में मिला आता तू
अपना नहीं यहाँ जब दौलत को पडे हो कई

बेगानों की बस्ती से गुजरना भी जरूरी था
अपनों ने भी तो मारें थे गालों पे तमाचें कई

नितेश वर्मा

दिल की खराश [Dil Ki Kharash]

पत्थर चोट और दिल की खराश
ईश्क में हुएं कैसे दो-दिल बर्बाद

थामां दामन और सँभाली हर जुबां
रिश्तों में लगा कैसे मतलबी धुंआ

शहर नया और परदेशी चेहरें सभी
हुआ कत्ल और निकले अपने सभी

खामोश हर्फ और बेबस इंसा लगे
अपराध में फँसे तो जाँ-से-जाँ लगे

दिल बिखरा तो लगी ये हैंरत कैसी
टूटना ही था टूटे कोई वजह कैसी

आज़माईश की अब ना ये दौर है
अपने लिये है खंज़र यही शोर है

नितेश वर्मा

Thursday, 28 August 2014

कर गए [Kar Gaye]

वो आँखों से अपनें इक इशारा कर गए
मुझे अवारा समझ वो किनारा कर गए

चेहरें पर लिये गुलाब अभ्भी वो बैठे है
इक इंतजार को है और बेसहारा कर गए

सीनें में राज़ ही राज़ दबाएँ रक्खें है
सीनें से जो लगाया तो नाकारा कर गए

इक उमर से बची कैसी ये चाह थीं
उनकी वो नज़र उठी और शायराना कर गए

सारें हम-उम्र मेरें कहाँ तक पहोच गए
उठाया सबने आँख और हम हर्जाना कर गए

नितेश वर्मा


Tuesday, 26 August 2014

इंतजार था [Intezaar Tha]

मुझे अब किस बात का इंतजार था
कहूँ जो मैं तेरे साथ का इंतजार था

तुम तो हसरतों में भी थीं गुमशुदा
मुझे तो बस दीदार का इंतजार था

गुनाहों की बात प्यार में ही क्यूं की
था कातिल मैं जुल्म का इंतजार था

आग लगे तो इस जमानें की आँख को
क्या इसे मेरी ही मौत का इंतजार था

तुमने भूलाया जो मैं घर से बेघर हुआ
शायद कही इसे तेरे ना का इंतजार था

हर हर्फ एहसान-फरामोश निकल गयी
कहाँ उसे कभी उस रात का इंतजार था

नितेश वर्मा

Monday, 25 August 2014

मिला [Mila]

दिल था जो बदनाम मेरे काम का मिला
मैंनें जो हाथ छुडाया खंज़र इनाम का मिला

मेरे बारें में ना जिक्र किया करो तुम
हर्श बेहर्श मैं कैसे तेरे जाम का मिला

बहोत की कोशिशें और फिर नाकारा गया मैं
धूँधली आँखें और बेसबर रस्ता शाम का मिला

टटोल के जो देखा ता-उम्र खुद में मैनें
बताया था जो तुमनें नाम राम का मिला

अवारें गलियों से भी अब वो गुजरते नही
हुआ था क्या जो वो उस अंज़ाम का मिला

नितेश वर्मा

शर्म नहीं [Sharm Nahi]

मुज़रिम के आँखों में शर्म नहीं
ये ज़माना मेरा अब हमदर्द नहीं

मैं भूल गया जिस तस्वीर को
वो हुआ दीवार में नर्म नहीं

पत्तें भी टूट के बिखर गए
समाजी आग थीं मेरी धर्म नहीं

अब जो सोया मौत ही मिलेगी
अपना छूटा बची कोई फर्ज़ नहीं

नितेश वर्मा

आयें हो [Aaye Ho]

जो जला हूँ मैं ज़ख्म दिखानें आयें हो
मेरे जले पे तुम नमक चढाने आयें हो

मान लेता जो मैं खुद से नाकाम होता
मेरे चेहरे की बची रंगत उडाने आयें हो

हर सफेद अब झूठ की मीनारें हैं बस
इस उम्र में तुम घर गिराने आयें हो

चलती साँसें भी अब सहम सी जाती हैं
जो तुम इस चिराग़ को बुझाने आयें हो

बोलते-बोलते अब गला भी सूखा-सा है
क्या अब भी तुम आग लगाने आयें हो

मेरी हर मंज़िल बिन रस्तों की है वर्मा
क्या बिन बादल तुम बरसात कराने आये हो

नितेश वर्मा

Saturday, 23 August 2014

..आग का दरिया है.. [Aag Ka Dariya Hai]

देश-भक्त हो जाता है दिल कभी-कभी.. हालातें, बाते, समझौते इस सोचनीय स्थिति पर आकर कभी-कभी रूक जाती है। कौन अपना हैं कौन पराया। आखिर इंसानियत ही है तो हमारें अंदर फिर ये विवाद, उल्झनें, समस्याएँ क्यूं? क्यूं हर बार का वही अपराध और वही निदान। दस इधर से दस उधर से। मरते और मारतें-मारतें क्या मुल्क अभी तक थका नहीं या फिर उनकें आँसूओं को अभी तक सुकूँ नहीं मिला। हर बार की प्रतिशोध में इक मासूम की मौत। क्या सीमा पे खडे सैनिकों की जान इतनी सस्ती हैं। रात-भर उन्हें सुकूँ नहीं, आँखों की नींद ना जानें कबकी खो गयी हैं.. अपनों से दूर होकर देश-सेवा.. नमन है उनको। क्या आखिर ये बलिदान के किस्सों तक ही सीमित रह गए हैं। मुझे ना अपनें और ना ही दूसरें देशों की प्रशासन और अर्थवयस्था की जानकारी हैं यानी की मैं बिना कुछ जानें यह सब लिख रहा हूँ। यदि उनकी तरफ उँगली करू तो यह बात बजारू हो जाऐंगी और ना करूं तो हास्योपद या मनोरंजक। शर्मं सी आती है खुद के होनें पर। दिल भरा-भरा सा है इसलिए आवाज़ में इतनी खरास नज़र आ रही हैं।



..हर मुश्किल..
..आसां कर जाऐंगे..
..ग़र आग का दरिया है..
..तो तैर के जाऐंगे..

..हमनें कभी..
..ना रूकना है सीखा..
..समुन्दरों से..
..बारिश कर जाऐंगे..

..उडते परिंदों के भी..
..है पर गिन लेते..
..सिकन्दर की बात..
..तुम्हें फिर समझा जाऐंगे..

..हमनें उडना है सीखा..
..हवाओं को अपना..
..गुलाम कर जाऐंगे..

..शातिर हमसे बडा..
..कोई और ना है..
..हम भरी महफिल में..
..राज़ कह जाऐंगे..

..उम्मीदों के आगे..
..और क्या है..
..अपनी आवाज़ से..
..हिन्दोस्तां कह जाऐंगे..

..हर मुश्किल..
..आसां कर जाऐंगे..
..ग़र आग का दरिया है..
..तो तैर के जाऐंगे..

..नितेश वर्मा..


Friday, 22 August 2014

दे जाती है [De Jaati Hai]

हर शाम हवाएं बहकर सुकूँ दे जाती हैं
बारिश की हर बूंद ज़ज्बात दे जाती हैं

बरसते है इन आँखों से कई और नूर
मग़र ये ख्याल तेरी तस्वीर दे जाती हैं

तुम आसमां के सितारों में आते हो नज़र
तुम्हारी मुस्कान वो इक चमक दे जाती है

करवटों पे भी बहकी आँखें खुल जाती है
थीं मुहब्बत की कसम आवाज़ दे जाती है

लबों के करीब है ना-जाने और कितने नाम
तुम्हारी साथ वो मुक्कमल किताब दे जाती है

बस अब इक बहानें का इंतज़ार है वर्मा
भर-लूं बाहों में ग़र वो हाथ दे जाती हैं

नितेश वर्मा


Thursday, 21 August 2014

इंतज़ार [Intezaar]

..मासूम सी इक रात बहकी सुबह का इंतज़ार..
..थम जाएं आँखें बस मौत का गहरा इंतज़ार..

..ले चली थीं जो बातें बहा-कर हवाओं ने..
..साँसें रूकी पडी है जाने कैसा है इंतज़ार..

..मैं मुक्कमिल था शायद किताबों का हिसाब रहा..
..बीत गया वो लम्हात था जिसका कबसे इंतज़ार..

..कैसे बनाया था हमनें अपनें पुरानें मकानों को..
..जैसे टूटा इक नाव जिसे हो मेरा इंतज़ार..

..अब तौलते-तौलते इक रही उमर गुजर गयीं..
..बीतता था दिन कैसे चाँद का था इंतज़ार..

..नितेश वर्मा..

Wednesday, 20 August 2014

रो लेंगी तो आँखें कह देंगी [Ro Lengi To Aankhein Kah Dengi]

मैने बदल दिया उन आसमानों को
दिखाते थे जो दिन-रात ज़माने को

पत्ते टूटे और बिखर से गए
बाग़ ज़ला गया मैं मयखानें को

अधूरी क्या रहेंगी ख्वाहिशें तेरी
समुन्दर लाया मैं प्यास बुझाने को

परिंदे भी हवाओं में रह ले
मकाँ जला आया ये बताने को

रो लेंगी तो आँखें कह देंगी
सोया था रात भूख मिटाने को

नितेश वर्मा

Tuesday, 19 August 2014

लाया [Laaya]

इक उमर तक इक उमर का ख्वाब लाया
मैं नासमझ रहूँ तेरे-संग ये जज्बात लाया

मिल के होती खतम ग़र ये अधूरी ख्वाहिशें
करता वो जो मैं समुन्दर से आसमान लाया

बहकी-बहकी सी ही हैं ये ज़ुल्फें शबनमीं
बेसबर हूँ बाँध लो निकाल जो दिल लाया

अब तो तुम्हारी रक्खी तस्वीरें भी सताती है
बदल जाएं बात मैं शराब-ए-हाल उठा लाया

अभ्भी लबों की मुस्कान सब कह जाती है
मैं बेवजह गुलिस्तानों का किताब खरीद लाया

अब तो ना होगी कोई मरहम-ए-नुक्स वर्मा
समझाया जो उसने रात मैं चाँद उठा लाया

नितेश वर्मा

कौन करे [Kaun Karein]

मुहब्बत की बातें अब कौन करे
घर है मुज़रिम नमाज़े कौन करे

मैं बैठा रहा तेरे हिज़रे में
रात है सर्द रखवाली कौन करे

सोया रहा मैं किस्मत के सहारें
लगी है दर्द सवाले कौन करे

तु ना बडा हमदर्द है मेरा
बिन तेरे जाल-साजी कौन करे

उतार के जो रक्खा है मैनें
शर्म फिर आँखों में कौन करे

कोई और कहता तो सुन लेता
अब ये समाज़ी हिसाबे कौन करे

नितेश वर्मा



चाह थीं [Chah Thi]

सबको इक मुकाम की चाह थीं
मग़र मुझे मेरे इंतकाम की चाह थीं

बदले की नफ़रत लिए दौडता था
मग़र सीनें में वही दिल की चाह थीं

बतानें का अब कुछ इरादा नहीं
ज़ाम से भरी इक खंज़र की चाह थीं

मिला दिया तुमनें सब सबूतों को
ज़ुर्म को खत्म करनें की चाह थी

सब रहें आलिशान मकानों में
मग़र मुझे मेरे गाँव की चाह थीं

भूलता है तो भूल जाएं चेहरा मेरा
मुझे तो बस मुहब्बत की चाह थी

नितेश वर्मा



Nitesh Verma Poetry

मिला जा के सुकूँ इसे तेरे इक हँसी मुस्कान में
था बेसबर भटकता लेके जो ये दिल आसमान में

तेरे ही लब से ये बरसता हैं संग-ए-मरमर सा
खुली जो आँख निकल आई तुम मेरे पहचान में

बिठा के रक्खा था हर अपने को इक कतार में
साथी, हमराज़ी, हमदर्द, हमदम कानी शान में

बुला के सबने दिखा भी दिया मेरे हक में नहीं
मैं यूं ही जीता रहा शान-ए-शौकत कब्रिस्तान में

नितेश वर्मा

बेकसूर [Bekasoor]

नज़रों में रहा था आज़ तक जो बेकसूर
साँसों को मेरे लिए जा रहा है वो बेकसूर

दिल को सुकूँ ना आया था कभी मेरे
बेचैंन ही रहा हर-वक्त बिन-तेरे बेकसूर

समझौते-पे-समझौते हुएं इस अज़नबी पर
कौन आता हैं जुर्म के दर पे होके बेकसूर

मनाया दिल को बहोत कैसी रूसवाई थीं
जा रही थीं जान हुआ था जो मैं बेकसूर

और करो मुहब्बत सितम की आह लगी
अब ना बनाओ बातें थें तो तुम बेकसूर

बदल-सी गयी हैं बातें कहके जो तुम गए
कहा गए वो लोग जो हुएं थे कभी बेकसूर

..नितेश वर्मा..




#HappyIndependenceDay A Message By Nitesh Verma.

भारत के आज़ादी का आज़ 68वाँ वर्षगाँठ है। आज़ से 68 वर्ष पूर्व हम सब आज़ाद हुएं थें। बहोत खुशी की बात है। हमें अपनें देश की समृद्धि पे नाज़ है। आप सब खुश रहें, दिल खुश रहे, देश खुश रहें; यही हमारी कामना हैं।
स्वतंत्रा दिवस पर सभी देशवासियों को ढेरों शुभकामनायें. यह दिन सभी के जीवन में सुख, शांति और समृद्धि लेकर आये. #HappyIndependenceDay

..नितेश वर्मा..

Nitesh Verma poetry

..हम खामोशियों को यूं बुनते चले आएं..
..इश्क में जैसे सब चेहरें ढूँढतें चले आएं..

..ऐसा हो वो तलाशता मुझे यहां चले आएं..
..मैं नज़रों में रखूं उसे वो बेलिबास चले आएं..

नितेश वर्मा

..बदल जो जाएं हम बुरा ना समझना तुम..
..दिल में उतर जाएं बुरा ना समझना तुम..

..कोई कहता रहता था हमे अज़नबी..
..बातों को उनके बुरा ना समझना तुम..

..नितेश वर्मा..

सिसकियाँ [Siskiyan]

घर के इक-कोनें से चली आती है सिसकियाँ
परेशां हो दिल तो निकल आती है सिसकियाँ

मासूम सी तेरी इक तस्वीर लिये जिंदा हूँ
तू ना दिखे तो निकल आती है सिसकियाँ

पूछते हो क्या आखिर रूठा-रूठा सा क्यूँ हूँ
मौत आती है तो निकल आती है सिसकियाँ

ज़ंगलों में भी अब सूखा-पड आया हैं क्या
आँखें उदास हो तो निकल आती है सिसकियाँ

मेरे-बहानें तुम अब ये समझौते ना किये फिरों
सयाने जो मिलते है निकल आती है सिसकियाँ

भला अभ्भी-तू उसकी इंतज़ार का कायल है वर्मा
अब तो हिचकियों पे भी निकल आती है सिसकियाँ

नितेश वर्मा

ज़िन्दगी [Zindagi]

घुट-घुट के जो गुजर रही है ज़िन्दगी
तुम ना थी तभ्भी ग़रीब थीं ज़िन्दगी

तुम्हारें हिस्से से सब थोडे हुआ है ना
तुम ना थी तभ्भी परेशां थी ज़िन्दगी

तुम मिले तो कुछ अज़ीब सा हुआ था
खुशी बे-हिसाब और अमीर थी ज़िन्दगी

बिछड के जो तुम चली गयी मुझसे
खाली खामोश भरी रही ये ज़िन्दगी

मुन्तज़िर था ना-जानें कबसे दीदार को
बिन-तेरे लगती है उधार थीं ज़िन्दगी

समझ के आ गए है सब होश वर्मा
लगाई थी जो आग़ बुझाई पूरी ज़िन्दगी

नितेश वर्मा

Sunday, 10 August 2014

..जिधर.. [Jidhar]

चला जा रहा है इंसान जिधर
बताया था वो रस्ता बदनाम जिधर

मुँह के निवालों की फिकर कहाँ
बच्चें हैं निकले काम हो जिधर

धीरें-धीरें ही चले थें शहरी सयानें
जाकर रूक गये मिलें अपनें जिधर

नाम-तो नही लूँगा लेकिन कहता हूँ
मिलतें है सब बडी-कीमत हो जिधर

इन-मकानों का क्या किये फिरते हो
मिलना है उधर दो-गज़ मिट्टी जिधर

क्या करें सब हाल-ए-बयां कर वर्मा
मिलता है दो-दिल दिल हो जिधर

नितेश वर्मा

..हो जाऊँ.. [Ho Jau]

चाहता हूँ मैं भी इक किताब हो जाऊँ
चाहें तुम पढों जितना मैं बेहिसाब हो जाऊँ

तुम्हारें हाथों में बस मिरा ही हाथ हो
ख़ातिर तुम्हारें मैं इक ख़िताब हो जाऊँ

लब से लब अब बस लगे ही रहे
इस प्यार में मैं इक-ज़िस्म हो जाऊँ

सवारं लो तुम अपनें चेहरें को मेरे यहां
इस धूप में मैं तुम्हारा ज़ुल्फ़ हो जाऊँ

हवाएं चलती भी है तो यादें सताती है
चाहता हूँ तेरी तस्वीर का श्याम हो जाऊँ

नितेश वर्मा

Saturday, 9 August 2014

..कर रक्खी है.. [Kar Rakkhi Hai]

यादें शहर की अभ्भी रू-ब-रू कर रक्खी है
तेरा हो जाऊँ गाल पे हाथें कर रक्खी है

बिखेरतें समेटतें चले जाऐंगे पन्नें हम
ईश्क में तेरे एक तस्वीर कर रक्खी है

मिला जो था ही कहाँ हम नाशुक्रा निकले
समेट दर्द को हमनें पहाडें कर रक्खी है

भूला दिया था हमनें कहाँ कभी पता तेरा
कहनें की बात थीं नज़रें आज़ भी कर रक्खी है

नितेश वर्मा