Saturday, 26 December 2015

एक ख्वाहिश मुझमें खामोश रहती है

एक ख्वाहिश मुझमें खामोश रहती है
देखकर तुझे ना यूं कोई होश रहती है।

कुछ कहना चाहता था बरसों से तुमसे
मगर हाल हर वक़्त मदहोश रहती है।

हिसाबों किताब का जिक्र होगा तुमसे
फिलहाल तो जिगर ये बेहोश रहती है।

तुम जिस्म के हर सिहरन में रहती हो
जो उठे कोई बात तुम निर्दोष रहती है।

नितेश वर्मा और रहती है।

एक शाम गुजांइश की

एक शाम गुजांइश की
जिसमें होंगे
सम्मिलित कुछ किस्से
कुछ अधूरे.. कुछ पूरे
कोई ख्वाब चलकर आयेगी
कोई ग़ज़ल सुनायेगी
मिट जायेंगे विवाद सारे
परस्पर जब मिल जायेंगे
लबों से लफ्जों लब हमारे
गम-ओ-शिकवों से दूर
एक शीतलता से मदहोश
कोई होश जब ना ठहरेगी
सामने आँखों के तुम होगी
उस शाम के कोहरे में
जहाँ धुंधों में तुम होगी
बात होगी फरमाइश की
होगी जब
एक शाम गुजांइश की।

नितेश वर्मा और एक शाम।

कारगर नहीं है कुछ भी.. कुछ भी..

कारगर नहीं है कुछ भी.. कुछ भी..
जो नजरों से बयाँ हो कभी
शाम शहर में, दीवानों की भीड़ में
किसी ख्वाहिशों की ओट में
तुम्हारी जिक्रों-ख्यालों में
स्याह की तस्वीर में.. कालिख से
पुते दो संग-ए-मरमर जिस्म की
दास्तान अभी सारी अधूरी सी है
बात रह गयी पास जो पूरी सी थी
बस होके अब ये जाँ अधूरी सी है
कारगर नहीं है कुछ भी.. कुछ भी..

नितेश वर्मा

Wednesday, 23 December 2015

लबों की सरगोशियाँ समझाने को है

लबों की सरगोशियाँ समझाने को है
इश्क तुमको और पास बुलाने को है।

जो फिसल रहा हैं जिस्म पे तुम्हारें
वो चंद उंगलियाँ तो बहलाने को है।

मुहब्बत यूं एक ठहरी प्यास सी है
वो दरिया मुझमें भी समाने को हैं।

नहीं दूर हैं मुझसे निगाहें भी तेरी
कोई शक्ल बे-वक्त दुहरानें को है।

हैं शाम भी मुतमईन यूं इंतज़ार में
मंज़िल ये आखिर मिल जानें को है।

नितेश वर्मा

Monday, 21 December 2015

गुम हो गयी हैं तस्वीरों में जिक्र तुम्हारी

गुम हो गयी हैं तस्वीरों में जिक्र तुम्हारी
अब नहीं है याद मुझे वो शक्ल तुम्हारी।

समुंदर की लहरों पर सब्र का हिसाब है
बेहिसाब फिर क्यूं मुझपे इश्क़ तुम्हारी।

ये तकलीफ़ भी अब मझदार होने को है
मेरी हर नाव पड़ी है यूं कर्ज़ में तुम्हारी।

कर दो एक और एहसान इस जिस्म पे
गले लग जाओ उतर जाये रोग तुम्हारी।

मैं सायों के धुंधलके में ये ढूंढता हूँ वर्मा
कोई ख्याल लग जाये राख की तुम्हारी।

नितेश वर्मा


Sunday, 20 December 2015

मुनासिब नहीं है इश्क़ साहब

मुनासिब नहीं है इश्क़ साहब
दिल की बीमारी इश्क़ साहब।

लगा जो ये रोग किसी रोज़ रे
मुलाजिम हो जाये जाँ साहब।

गम और भी है सुनाने को यूं
मगर है यहीं जानलेवा साहब।

तस्वीर सायों की गिरफ्त में है
परेशां है देख बाज़ार साहब।

धोखेबाजों से मिली पाठ वर्मा
जिन्दगी नहीं है इश्क़ साहब।

नितेश वर्मा


Saturday, 19 December 2015

बेपनाह मुहब्बत थीं

बेपनाह मुहब्बत थीं.. बुझायीं भी गयीं.. तो सुलगती रही एक आस में। :)

कुछ मुश्किल नहीं है

कुछ मुश्किल नहीं है
कुछ भी सीख लेना
आदतन सब आसां है
हो जाये जो तुम्हें इश्क़
फिर तुम देख लेना
देख लेना
हवाओं में पंक्षी बनके
समुंदर की बेबाक
लहरों में ढलके
ओढ लेना चादर तुम
इश्क़ के तासीर की
जो याद आयें
एक तस्वीर तुमको
सर्द रातों के कुहासे में
उबलती हुई तुम्हारी
उस गर्म सी चाय में
एक खामोशी से
ढक लेना मुझे तुम
ख्यालों की चाँद पर
या.. बिन तेरे
बिन तेरे फिर होगा
अधूरा
लिखा हुआ मेरा
सबकुछ ये पूरा-पूरा
देख लेना तुम
देख लेना तुम।

नितेश वर्मा और चाय। 🍵

अगर ख्वाब ऊँचे ना होते

अगर ख्वाब ऊँचे ना होते
पंरिदे ये यूं जुदा ना होते।

तुम तुम ना होते बिन मेरे
साँसें ये भी हवा ना होते।

नितेश वर्मा

दिल पहले से ही हल्का भारी था

दिल पहले से ही हल्का भारी था
जैसे खुदपे कहीं एक उधारी था।

कोई लगा है जाके अब रोग मुझे
और बरसों से एक महामारी था।

न है मुझमें मेरी वफादारी तुमसे
यही तो मुझमें एक बीमारी था।

उससे बड़ा कौन है यहाँ यूं वर्मा
वो ही मुझमें एक होशियारी था।

नितेश वर्मा

हर बार वहीं बात

हर बार वहीं बात
वो चली गयी
करके
मुझे बीच मझदार
फिर याद आएगी
जाने कब तक मुझे
एक शिकस्त खाये
खड़े हैं
हम भी बीच बाजार
परेशां मेरे इश्क़ से
ज़माना ये सारा है
मेरे ख्याल से
मेरे ख्याल में
पागल ये मुल्क सारा है
फिर भी जीं रहा हूँ
बगैर बेफिक्र उसके
बोल रही ये हर जुबाँ है
और सुनके ये
रों रहा है मेरा प्यार
अब रहने दो
सुनाऊंगा फिर किसी रोज़
जिन्दगी का ये विस्तार
आज़ खुद से हूँ.. खुद में हूँ
मैं होके बहोत शर्मसार।

नितेश वर्मा

Monday, 14 December 2015

काफिराना निगाहें बाते मतलबी

काफिराना निगाहें बाते मतलबी
वो शक्ल ले गयी हवाये मतलबी।

मुझको भी याद नहीं तेरे बाद ये
वादों के दरम्यां हैं आहें मतलबी।

सवालों में सिमट आती हो तुम
नज़रकैद फिर क्यूं सायें मतलबी।

तुमसे बिछड के सब खुशनुमां हैं
मंज़िल से अलग हैं राहें मतलबी।

नितेश वर्मा

सरफिरी का आलम हैं और हैं वक़्त नहीं

सरफिरी का आलम हैं और हैं वक़्त नहीं
सरफरोश के नाम पर हैं कहीं रक्त नहीं।

जानिब अखबार में मिली थी तस्वीर तेरी
चेहरा दिखा बस जिस्म तेरा समस्त नहीं।

मेरी दुआओं में हर रोज़ तू पुकारा जाऐगा
माँ की हैं जुबाँ ये कोई मौकापरस्त नहीं।

हर गली हर गाँव में साहिब बसते हैं वर्मा
फिर भी मामला दिखा कहीं दुरूस्त नहीं।

नितेश वर्मा

Friday, 11 December 2015

तमाम उलझनों के बाद फिर तुम

तमाम उलझनों के बाद फिर तुम
निगाहें हैं देखकर परेशान
के क्यूं लौट के आयी फिर तुम
तुम्हें जिस्म में कैद करने को
निकले जो अपने कूचे से
हवाओं में नज़र आयी फिर तुम
मुहब्बत ही है दवा, है ये दर्द भी
देखो
सवालों में सिमट आयी फिर तुम
तमाम उलझनों के बाद फिर तुम

नितेश वर्मा और फिर तुम।

मेरी हर शिकायत पर ये ज़िस्म जलाया गया

मेरी हर शिकायत पर ये ज़िस्म जलाया गया
फिर दवा-ओ-मरहम से मुझे फुसलाया गया।

मेरे हर दर्द को किसी तस्वीर ने समेट रखा है
ये आँखें रोंयी जब जिस्म वो दिखलाया गया।

कुछ नेकियों के बाज़ार से गुजर के सीख लिये
ग़म जिंदगी में कभी ऐसे भी मेरे लाया गया।

दुनिया ये भी मुहब्बतों और नफरतों के बीच हैं
दिल जो धडका मेरा नाम तेरा बतलाया गया।

नितेश वर्मा

Wednesday, 9 December 2015

हालांकि ये बयानबाजी होगी

हालांकि ये बयानबाजी होगी
तुम्हारे सामने
के कभी
तुम्हारी तस्वीर तुम्हारे बाद
याद दिलाऐगी तुम्हारी
जब तुम ना होगे सामने
मगर होगे मौजूद कहीं
इन हवाओं, इन फजाओ में
ढूंढ लाऊँगा तुम्हें फिर से
कैद कर लूंगा
उस गिरफ्त में तुम्हें
जहाँ से तुम मेरे
जिस्म में ढल जाओगी
तुम सिमट जाओगी
मेरी बाहों की जरूरतों में
मैं भूल जाऊँगा खुद को
तुममें रखकर कहीं
की
खुद को रखा था कहीं।

नितेश वर्मा

मेरी कोशिशों से पाशिकस्ता परेशां है

मेरी कोशिशों से पाशिकस्ता परेशां है
मैं कुछ लाचार हूँ.. कुछ वो हैरान है
कंकड़ों का हिसाब रस्ते-सफर भर था
हिजाबों में शक्ल, हयां ओढे बेसबर था
गमों का बाज़ार था माहौल गर्म था
क्यूं शख्सियतपरस्ती संस्कृति बनी है
हर बार यही सवाल होती है खुद से
आखिर कब तलक कैद ये जां रहेगी
और दुनिया ये कब तक.. कब तक..
आखिर सबको भूखी मारती रहेगी।

नितेश वर्मा

फरेबी हूँ..

बहोत दिनों से कोई ख़ास नज़्म लिखी नहीं.. कोई शे'र वाह-वाही का कहा नहीं.. और कविता लिखनें के नाम से तुम याद आ जाती हो.. एक तुम्हारें सिवा और क्या कहूँ.., कहूँ तो मतलब फुरसत में हूँ नहीं मैं। वक्त के दायरें में वक्त का चक्कर बना पडा हूँ।
सर्द रात हैं और की-बोर्ड पे मेरी उँगलियाँ तेज़ चल भी नहीं रही हैं जब तक चाय की कप की गर्माहट हथेलियों को बाँधें हुये हैं.. कुछ लिखनें की कोशिश में मैं भी लगा हूँ, तुमसे खफा हूँ या नाराज़ सोच के बताऊँगा.. मग़र अभी तुमसे परे कुछ लिखना चाहता हूँ।
किसी मासूम से छोटे बच्चों को इतनी सर्द में एक लिहाफ ओढें सिगरेट बेचते हुए देखकर तुम्हारा ख्याल कुछ रहा ही नहीं। ना चाहतें हुये भी मैनें उससे एक सिगरेट खरीद लीं, ना तो मैं उसपर कोई दया दिखाना चाहता था और ना ही खुद को बडा बनाना चाहता था, मगर अब तक उस मासूम से बच्चे के चेहरे से खुद को रिहा नहीं करा पा रहा हूँ। वज़ह कोई और हैं या तुम पता नहीं।

हर शक्ल में मैं ही दिखता हूँ
फरेबी हूँ.. फरेबी दिखता हूँ।

नितेश वर्मा और फरेबी

मुझको तो मोहलत कभी मेरे वक़्त ने दी ही नहीं

मुझको तो मोहलत कभी मेरे वक़्त ने दी ही नहीं
मेरी दर्दों को जो कम करे वो मरहम हैं ही नहीं।

बस तकलीफ़ों के दौर से गुजर रहा हूँ मैं वर्मा
कुछ कहें कुछ सुने साथ वो हमदम हैं ही नहीं।

नितेश वर्मा

यूं ही एक ख्याल सा

उसके नहीं आने तक भी खामोशी थीं, लेकिन जब वो कमरे में आयी और फिर हमारी नज़रें एक-दूसरे से टकराई.. फिर घंटों खामोशी बंधी रही। उसकी नाराजगी जब उसमें और मेरी मुझमें सिमट गयीं.. मासूम शक्लें फिर मासूम से शक्लों में तब्दील हो गये.. फिर जाके कमरे से बाहर हम दोनों निकले.. उस शीत के धुंधलके में कहीं बाहर.. कुछ दूर.. एक-दूसरे के हाथों की लम्स को महसूस करते हुए.. चाय पीने को।

नितेश वर्मा और चाय

खामोशी उसकी नजरों की देखिये

खामोशी उसकी नजरों की देखिये
फिर बेहाली इन बदरों की देखिये।

जिन्दगी से गम भी रिहा हुये वर्मा
चालें बदलती ये मुहरों की देखिये।

नितेश वर्मा

Friday, 4 December 2015

For Chennai By Nitesh Verma Poetry

चेन्नई के लोगों (बाढ से पीडित) के लिये कृप्या दुआ के साथ-साथ दवा का भी इंतेज़ाम करें। विनम्र निवेदन हैं।

वो खामोश सी रहनें लगी हैं
जबसे मेरे बगैर रहनें लगी हैं
उसकी आँखें नम ही रहती हैं
और लोग कहते हैं जानें क्यूं
तस्वीर मेरी बिखरनें लगी हैं
मुझे तो ऐतराज़ हैं हर बात से
हर ज़िस्म हर दरों-दीवार से
खुलकें कभी आया नहीं हैं वो
परेशां हैं दिल कलकी रात से
नहीं हैं सब्र अब अब्र बरसते हैं
बात कलकी ही करनी हैं फिर
जां फिर से मुसीबत में हैं वर्मा
दुआ के साथ दवा भी करनी हैं
दुआ के साथ दवा भी करनी हैं।

नितेश वर्मा

Thursday, 3 December 2015

यूं ही एक ख्याल सा ..

फिर से उसके बारे में लिखकर पूरा मिटा दिया, एक बार फिर से। वो कबकी चली गयी.. और मैं नजानें क्यूं ठहरा हूँ उसकी यादों में। कुछ बातें समझ से परे होती हैं.. दिल अगर ये प्यार करना ना सिखाता तो हर दफा मैं परेशान रहता बिलकुल इस दफे की तरह। अब तुम्हारे लिये कोई कसक नहीं.. आज कोई जवाब नहीं.. और ना ही किसी उम्मीद में तुम हो, ..
बस जब कभी कोई ठंडी सी हवा चेहरे से होकर गुजर जाती हैं तुम बेवजह याद आ जाती हो.. खुलीं जुल्फों के संग मुस्कुराते हुये।

नितेश वर्मा

फिर कभी

फिर कभी.. फिर कभी.. कहके मैनें हर वो बात टाल दी
मुहब्बत ये अक्सर मेरी बहानों में सिमट के रह गयी।

नितेश वर्मा और फिर कभी।

Wednesday, 2 December 2015

दो आँखें हर वक़्त पीछे लगीं होती

दो आँखें हर वक़्त पीछे लगीं होती
रोने की भी इजाज़त ना मिलती
और
ना ही कुछ छिपा लेने की
ग़म रिंसता रहता मूसलसल
सदियों की दुआएं.. ये खैरियत
मेरे मौला से की हर शिकायत
रह जाती यहीं पास मेरे
जैसे उसकी गुनाहें
पानी पर लिखी तहरीर हो
और
पढनेंवाला भी हैंरा हो बिलकुल
ये कहनेवाले की तरह
कोई परेशां हैं किसी हैवान के आगे।
नितेश वर्मा

फिर से मिल जाये नज़र तुमसे

फिर से मिल जाये नज़र तुमसे
होश कहीं ये गुम हो जाये
फिर से बात कहीं ठहर जाये
कोई जुबाँ यूं जिस्म हो जाये
शरारतें किताबी आदत हो
जब तुम कभी आ जाओ
गुमनाम कोई नाम मेरा हो
जुबाँ ये मरहम हो जाये
ठहर जाये ये साँस हल्की
जिन्दगी आसमान हो जाये
तुम फिर सब समझ जाओ
तुम फिर से गले लग जाओ
नम आँखें फिर ये खिल जाये
एक दफा फिर से..
फिर से मिल जाये नज़र तुमसे।

नितेश वर्मा


Monday, 30 November 2015

उसे भी कहाँ फुरसत हैं जो सुने कहानी तेरी

उसे भी कहाँ फुरसत हैं जो सुने कहानी तेरी
दो लफ्जों में बयाँ करो जो भी हैं बयानी तेरी।

तुमसे बढकर और कुछ भी नहीं हैं मुझमें यूं
फिर क्यूं यूं कर जाती हैं निगाहें बेईमानी तेरी।

महज़ मौकापरस्ती ही नहीं हैं सवालों में तेरे
एक कसक उठी जब उठी यूं परेशानी तेरी।

मेयारी सुकून के सारे दौर गुजर चुके हैं वर्मा
खून खौलता हैं जभ्भी होती हैं मनमानी तेरी।

नितेश वर्मा


Sunday, 29 November 2015

व्यस्तता भी जीवन की एक सच्चाई है

व्यस्तता भी जीवन की एक सच्चाई है
मगर नजानें क्यूं ना ये समझ आयी है।

दो पग कंकड़ों की रस्तो पर पैदल हो
तलवों में चींख जुबाँ पर हँसीं छायी है।

मेरा दर्द और कौन समझ पाऐगा रब
जब खुशी ही मेरे हिस्से गम लायीं है।

तू मुझमें खुद को ना तलाश कर वर्मा
मैंने खोके यूं शौहरत दौलत पायी है।

नितेश वर्मा

Saturday, 28 November 2015

रात भर भी आँखों से आँसू बहाया ना गया

रात भर भी आँखों से आँसू बहाया ना गया
खर्च की दौलत बहोत पर कमाया ना गया।

कई बहानों से ठुकराते रहे उनको हम भी
लगता हैं फिर सोचके हमें मनाया ना गया।

वो तो टूटकर भी बिखरने से घबराता रहा
सर्द की रात भी ख़तों को जलाया ना गया।

गुजर जाती हैं आवाज़ें होके खामोश यूंही
बात दिल की जुबाँ को ये बताया ना गया।

हैंरत में है जो परिशां से आलम छाया रहा
कोई चेहरा हैं दर्द का जो छुपाया ना गया।

नितेश वर्मा

Friday, 27 November 2015

ज़ख्म फिर से कुरेदें गये हैं

ज़ख्म फिर से कुरेदें गये हैं
हर घाव बिन मरहम के हैं
फिर से
खूनी खंजर चलाये गये हैं
मासूम आँखें जलाये गये हैं
चीखें, चीत्कारें फिर से
फिर से कत्लों का तमाशा
खून-खराबे फिर से
फिर से प्रचंड मजहबी बातें
फिर से शक्लों पे दाग
फिर से वहीं एक बीती बात
अंधी दुनिया, बेचारी समाज
हैं सड़कों पर रक्त-प्रवाह
जाने क्यूं
फिर से हम सताये गये हैं
ज़ख्म फिर से कुरेदें गये हैं।

नितेश वर्मा और फिर से।

यूं ही एक ख्याल सा..

वो आयी और मेरे बगल में सो गयी एक करवट लेकर.. और मैं चादर की सिलवटों में ढूंढता रहा नजानें क्या।

नितेश वर्मा

दीवारों के बंद हो जाने से

दीवारों के बंद हो जाने से
ना रूकती है साँसें रोकें जाने से
वो अलसायी दोपहरिया हैं
मेरे खेत, मेरे गाँव की बगानों से
पूछती है शहरों में लड़कियाँ ये
आती हैं घुटन क्या रोशनदानों से
पता है उन्हें क्या वो बेरहम है
मसला यही है बड़े खानदानों से
टूटकर बिखर गया आखिर तू भी
पत्थर जो निकला था चट्टानों से
न है पता ये मंजिल मिलेगी कब
चल रहे है फिर भी पूरे जानों से
तुम बेखौफ जीयो जिन्दगी को
नहीं मानता है कुछ भी मनाने से
दीवारों के बंद हो जाने से
ना रूकती है साँसें रोकें जाने से।

नितेश वर्मा

निगाहें उसकी भींग गयीं हैं

निगाहें उसकी भींग गयीं हैं
तस्वीर बोझिल
शायद कुछ रिहा हुये हैं
कोई कसक सदियों की
कोई घुटन अरसों की
बरस रही हैं बेसब्र ये अब्र
मूसलसल
मगर हैं कुछ और भी
जवाबदेह जिस्म शायद
मगरूर किये हैं
बेहाल से ये हाल उसको
जाने क्यूं वो सुरमई सी
शर्मातीं जो रही थी
अचानक भींग गयीं हैं
निगाहें उसकी भींग गयीं हैं।

नितेश वर्मा

सर्दी की रात

सर्दी की रात
दो जिस्म
ठिठुरते जुबाँ
कुहासे सी
ठंडी बयार
अगन की रात
और फिर
बेवक्त की
बारिश ☔
हाय!
मामला फिर
इस दफे भी
बीच में ही
रह गया।

नितेश वर्मा

अजीब किस्सा सुनाया गया

अजीब किस्सा सुनाया गया
बहोत दिनों के बाद
फिर से उसे बुलाया गया
बैठाया गया.. दुलारा गया..
इश्क़ की आड में
बतियाते हर जज्बात में
हौले-हौले सीने में
खूनी खंज़र उतारा गया
रिहाई के तो सवाल पर
बवाल बड़ा मचाया गया
मुँह की जिंदा जुबाँ को
बेलपटों के जलाया गया
फिर फूँक के उसको
जाने क्यूं
मातम बहोत मनाया गया
अजीब किस्सा सुनाया गया।

नितेश वर्मा

दूर तक सफर ले जा रहा मुझे भी

दूर तक सफर ले जा रहा मुझे भी
रंजो-गम हैं, मगर भा रहा मुझे भी।

कई चीखें ना सुनी मैंने, बेसुध रहा
तेरे बाद था कोई बुला रहा मुझे भी।

एक कहानी खत्म हुई तेरे आने पर
कोई जुबाँ था, रोज गा रहा मुझे भी।

कौन भूल गया है कमरे में रखकर
चेहरा ये आईना दिखा रहा मुझे भी।

तन्हा ही उदासी रात कटनी है वर्मा
बेवक्त आ चाँद बता रहा मुझे भी।

नितेश वर्मा

यूं ही एक ख्याल सा..

एक सुलझी सी जिन्दगी और उसकी उलझी
जुल्फें, कमबख्त ये नज़रें, निगाहों का ठहरना। फिर यादों की गिरफ्त में एक मामूली सी दिन और फिर बेवजह की वो।

नितेश वर्मा ओर और वो।

दो आँखें हर वक़्त पीछे लगीं होती

दो आँखें हर वक़्त पीछे लगीं होती
रोने की भी इजाज़त ना मिलती
और
ना ही कुछ छिपा लेने की
ग़म रिंसता रहता मूसलसल
सदियों की दुआएं.. ये खैरियत
मेरे मौला से की हर शिकायत
रह जाती यहीं पास मेरे
जैसे उसकी गुनाहें
पानी पर लिखी तहरीर हो
और
पढनेंवाला भी हैंरा हो बिलकुल
ये कहनेवाले की तरह
कोई परेशां हैं किसी हैवान के आगे।

नितेश वर्मा

मैंने आशंकित निगाहों से देखा था उसे

मैंने आशंकित निगाहों से देखा था उसे
कुहासे की सर्द सहर में
वो सकुचाती, बेहिस, बेकदर सी
चली जा रही थीं.. जाने किधर
शायद, मुझसे दूर
पर पता नहीं.. जाने क्यूं
क्यूं हर बार उसी नुक्कड़ पर
मिल जाती हैं निगाहें उससे अकसर
क्यूं उसकी कंगन खनक जाती हैं
निगाहें मुझमें डूब जाती हैं अकसर
क्यूं लबों पे सिहरन ठहर जाती हैं
क्यूं वो मुझमें एक जान छोड़ जाती हैं
क्यूं होता है ऐसा
खिल जाती हैं जब भी इस मौसम धूप
और
वो मुस्कुरा कर गुजर जाती हैं
सर्द सुबह की चाय
मुझको फींकी लगने लगती हैं।

नितेश वर्मा और चाय 🍵।

किसी मुश्किल से हम भी लिखने लगे हैं

किसी मुश्किल से हम भी लिखने लगे हैं
पामाल रस्तों से होकर ही चलने लगे हैं।

तौहीन हैं जो मिलती हैं साँसें गिनके हमें
वक्त पे आ खुदा खुदरंग दिखने लगे हैं।

आवारगी का आलम ना सर से उतरा हैं
ठोकरें खाके भी तो जाँ मचलने लगे हैं।

गुनाह कर दिया है साहिब तेरे शहर में
मेरी सज़ा सुनकर सब संभलने लगे हैं।

अफवाहें बस स्याह रातों में उड़ती रही
सुबहा देखा कुछ सितारें ढलने लगे हैं।

मेरी मुस्कुराहटों का हिसाब हुआ वर्मा
तेरे जाने के बाद हम भी बदलने लगे हैं।

नितेश वर्मा

इतनी खामोशी हो, अच्छी नहीं

इतनी खामोशी हो, अच्छी नहीं
रात गुजरी जो, वो अच्छी नहीं।

दिल भी परेशान था, जिस्म भी
बात जो चली थी, अच्छी नहीं।

थीं रात भर, वो सवाली निगाहें
सामने सहर, लगीं अच्छी नहीं।

हयां, चाँद ओढके लिपटा रहा
ईश्क में ये चादर, अच्छी नहीं।

तो ये आसमां पुराना है, मगर
बारिश भी लगी, ये अच्छी नहीं।

नितेश वर्मा और अच्छी नहीं।

अपने ही बातों पे दम निकलने लगे हैं

अपने ही बातों पे दम निकलने लगे हैं
घर से निकल के मकाबी चलने लगे हैं।

पता ले जाती हैं दूर वीरानियों में वर्मा
तेरा ख्याल कर कदम संभलने लगे हैं।

नितेश वर्मा

देख लू जो तुझको करार आ जाता हैं

देख लू जो तुझको करार आ जाता हैं
पतझड़ में कोई यूं बहार आ जाता हैं।

तेरी नज़रें झुकीं जुल्फों के संग जभ्भी
मेरे दिल में कोई त्यौहार आ जाता हैं।

आँखों में एक कतरा पानी का देखते
आँसू मुझमें भी बेकरार आ जाता हैं।

फूल सा जो खिल जाती मुझे देखकर
लगता वो धूप मेरे दीवार आ जाता हैं।

बंद रहने लगी है कोई तस्वीर मुझमें
जबसे पते पर कोई तार आ जाता हैं।

नितेश वर्मा

यूं ही एक ख्याल सा..

जैसे कोई नमीं सी रह गयी हो आँखों में
वो ठहरीं हैं मुझमें वैसे ही मेरे सायों में
दिल निकाल के जब भी अलग कर देता हूँ उससे
एक जिन्दगी बेवजह चलती हैं इन साँसों में।

नितेश वर्मा और बेवजह।

कहानी के किरदारों में ढालें गये हैं

कहानी के किरदारों में ढालें गये हैं
फिर क्यूं आज घर से निकालें गये हैं।

हर तस्वीर से त'आरूफ़ हो अगर तो
ढूंढे खुदको लग सब पर जालें गये हैं।

दो जिस्म जो जल रहा था सदियों से
कहीं सुना बहुत जतन से पालें गये हैं।

फिर वहीं बस्ती है बेगुनाहों की वर्मा
तुम जो गुजरें कई सर संभालें गये हैं।

नितेश वर्मा

अजीब फ़ासलों में सिमट के रह गया

अजीब फ़ासलों में सिमट के रह गया
दूर क्या हुआ वो मुझसे छूट ही गया।

नाज-ए-प्यार से संवारा था उसे कभी
आँधी ये चली कैसी पेड़ टूट ही गया।

सायों के कोने में गम गुनगुनाती रही
सिराहनें रात आँखों से फूट ही गया।

वो जिन्दगी की मसाइल से परेशां हैं
ख्वाब ये भी कोई मेरा लूट ही गया।

नितेश वर्मा

जिन्दगी इन कड़वाहटों में गुजर गयीं

जिन्दगी इन कड़वाहटों में गुजर गयीं
महज़ एक रोटी ना मिली तो मर गयीं।

फिर से कल वहीं मार खाने-पीने की
गरीबों की ये बात जुबाँ से उतर गयीं।

कोई शक्लों-सूरतों की मोहताज नहीं
प्यासी हुयीं जुबाँ तो घटा बिखर गयीं।

परिंदे सा हाल है इस मुल्क का वर्मा
शाम का बसेरा सुबह कहीं और गयीं।

नितेश वर्मा

यूं ही एक ख्याल सा

उसके करीब होने के एहसास भर से मानों जैसे सदियों की रंजिशें मिट जाती हैं, बेचैनियाँ स्थिर हो जाती हैं, एक सुकून.. एक ठहराव.. उसकी जुल्फों तलें उन सुरमई आँखों में डूबकर मिलती हैं जिसका जिक्र कभी जुबानी नहीं होता। कुछ ख्याल बस दिल से उतरकर पन्नों में सिमट जाते हैं.. जब भी तुम्हें लिखी कोई ख़त खुलती हैं.. ख्यालों में बस तुम बस जाती हो और ये मेरी तमाम मसरूफ़ सी जिन्दगी सिमटकर बस तुम हो जाती हैं।

कोई ख्याल, कोई बहाना तुमसा ना बना
वर्मा कोई और यूं मिसाल तुमसा ना बना

नितेश वर्मा

ऐसा मौसम साल में एक बार तो आता ही हैं

ऐसा मौसम साल में एक बार तो आता ही हैं
जब बच्चों के रंग में ये देश भी रंगा जाता हैं।

बहुत खुश हुआ करते है वो नौकरीपेशा भी
छुट्टी के दिन जब दिल बच्चा जुबाँ हो जाता हैं।

नितेश वर्मा और बच्चा जुबाँ।

गुजरें यूं ही हर रात बेमर्जी तो अच्छा है

गुजरें यूं ही हर रात बेमर्जी तो अच्छा है
दिल मेरा ये अब भी जज्बाती बच्चा है।

नितेश वर्मा और बच्चे।

दो खामोश से लोग मिले इस बार भी क्यूं

दो खामोश से लोग मिले इस बार भी क्यूं
बेचैन हैं साँसें बारिशों में इस बार भी क्यूं।

सवालों में निगाहें भी घुम जाती हैं उसकी
बेतुकी सारी जेहनी बात इस बार भी क्यूं।

हमदर्दी में हमसे इश्क़ कर बैठे वो वर्मा
दिल पिघला हैं पत्थर तू इस बार भी क्यूं।

नितेश वर्मा

अपनी सारी जुल्फों को सुलझाकर

अपनी सारी जुल्फों को सुलझाकर
कांधे की एक ओर
अपनी नज़रें झुकाकर जब भी
समेट लेती हो तुम उनको
मैं एक तस्वीर उतार लेता हूँ
जो तुम्हारे चले भी जाने पर
मुझमें बनती रहती हैं बेफिक्र
और मैं उनमें गुजरता हूँ बेसब्र
कोई वास्ता नहीं होता हैं तुमसे
कोई गवाह नहीं होती हैं मुझमें
बस तुम होती हो मुझमें
बात जब भी यादों की
उतरती हैं तुमसे होकर पन्नों पर।

नितेश वर्मा

हम ढूंढ रहे खुद को अपने ही कामयाबी में

हम ढूंढ रहे खुद को अपने ही कामयाबी में
और कोई किसी को मिल गया गुमनामी में।

ऐसा क्यूं होता हैं हरेक दफा मिलके उससे
वो शर्मां जाती हैं अपनी ही हर बेईमानी में।

नितेश वर्मा

उन अँधेरों से कह दो कहीं और जाये

उन अँधेरों से कह दो कहीं और जाये
शहर मेरे जुगनूओं का संसार आया है।

शुभ दीपावली की हार्दिक मुबारकबाद।

शुभ दीवाली

शुभ दीवाली के पावन अवसर पर अनेकानेक शुभकामनाओं के संग हम आपके मंगलमय और उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं। आप सभी पर माँ लक्ष्मी की कृपा दृष्टि सदैव बनी रहे। - शुभ दीवाली -

फिर से सजे घर-आँगन
बहे पुरवाई फिर से
फिर से हो दूर दरिद्रता
आयें खुशहाली फिर से
हममें-तुममें लौ जले
बाती-बाती सौ जले
दूर अंधकार हो
रोशन जहां हर ओर से
छल-कपट, ईष्या-द्वेष
अपराध और अत्याचार
इन सबका भी नाश हो
गूंजे ये सच्चाई जोर से
दीयों में चेहरे हो कल के
सपनें सुनहरे हो मचलते
रोग प्रेम का लग जावें
ये दीवाली मेरी हो तुमसे
फिर से सजे घर-आँगन
बहे पुरवाई फिर से
फिर से हो दूर दरिद्रता
आयें खुशहाली फिर से।

नितेश वर्मा और दीवाली।

और भी हँसीं लगती हो तुम

और भी हँसीं लगती हो तुम
खुली जुल्फें, मचलती आँखें,
और
उलझती बातों के संग
जब भी करीब आती हो तुम
एक आवाज होती है मुझमें
तुम्हारे आने पर
और
खनकती रहती है
तुम्हारे चले भी जाने पर
फिर एक वहीं
उदासी घेरे रहतीं है मुझमें
हर वक्त, लेकिन..
उस तस्वीर से
जब भी निकल आती हो तुम
और भी हँसीं लगती हो तुम।

नितेश वर्मा और हँसीं तुम।

Tuesday, 3 November 2015

नितेश वर्मा और रिश्ते

अभी वो अपनी यादों से निकल ही पायी थी कि एक जोर का धक्का उसके काँधें पर लगा। वो बौखलाते हुये पीछे मुड़ी ही थी कि उसका गुस्सा फौरन गायब हो गया उसका ड़रा सहमा बेटा बड़ी मासूमियत से उसके सामने खड़ा था।
फिर उसके मासूमियत पर उसने मुस्कुरा दिया और उसका बेटा दौड़ के उसकी बाहों में आ गया।

दरअसल रिश्ते ऐसे ही होते हैं कभी थोड़ी सी देर की दर्द को भूलाकर असीम सुख की प्राप्ति होती हैं। ऐसा हर बार नहीं होता परंतु एक बार जरूर होता है, बस इंतजार रहती है तो ऐसे ही रिश्ते की। माँ का दर्द तो बस माँ ही जानती है, हम शायद भूल जाते हैं मगर सबसे अहम हमारी जिन्दगी में ये रिश्ते ही होते है।

नितेश वर्मा और रिश्ते।


ज़ख्म फिर से कुरेदें गये हैं

ज़ख्म फिर से कुरेदें गये हैं
हर घाव बिन मरहम के हैं
फिर से
खूनी खंजर चलाये गये हैं
मासूम आँखें जलाये गये हैं
चीखें, चीत्कारें फिर से
फिर से कत्लों का तमाशा
खून-खराबे फिर से
फिर से प्रचंड मजहबी बातें
फिर से शक्लों पे दाग
फिर से वहीं एक बीती बात
अंधी दुनिया, बेचारी समाज
हैं सड़कों पर रक्त-प्रवाह
जाने क्यूं
फिर से हम सताये गये हैं
ज़ख्म फिर से कुरेदें गये हैं।

नितेश वर्मा और फिर से।

और भी हँसीं लगती हो तुम

और भी हँसीं लगती हो तुम
खुली जुल्फें, मचलती आँखें,
और
उलझती बातों के संग
जब भी करीब आती हो तुम
एक आवाज होती है मुझमें
तुम्हारे आने पर
और
खनकती रहती है
तुम्हारे चले भी जाने पर
फिर एक वहीं
उदासी घेरे रहतीं है मुझमें
हर वक्त, लेकिन..
उस तस्वीर से
जब भी निकल आती हो तुम
और भी हँसीं लगती हो तुम।

नितेश वर्मा और हँसीं तुम।


Monday, 2 November 2015

तेरी गली से नहीं गुजरता है दिल

तेरी गली से नहीं गुजरता है दिल
अब मुझमें ही बंधा रहता है दिल

फिर सोचता है नजाने क्यूं तुझको
प्रेम की बातें किया करता है दिल

तुम नहीं, तो कुछ भी नहीं मुझमें
संग होके तेरे ही मचलता हैं दिल

लौट के आ गयी वो सुबह हो तुम
आँख के किनारे से बहता है दिल

थम गयीं थीं साँसों की कहानी भी
वो गयीं औ' अब भी रोता है दिल

मुझको याद नहीं दरिया सूखे क्यूं
वर्मा की बातें कहाँ कहता है दिल

नितेश वर्मा और दिल।

यूं ही एक ख्याल सा

बरसों बाद उसकी चुप्पी टूटी एक सवाल को लेकर - आखिर क्यूं, क्यूं तुम चले गये.. मुझमें एक सवाल छोड़कर और अपनी बेपनाह मुहब्बत लेकर।
वो बहोत परेशान थीं और अब मैं भी हूँ परेशान, मगर उससे थोड़ा कम.. उसकी जुल्फें भी उसे परेशान करती हैं, लेकिन मेरे नहीं। 😊

नितेश वर्मा

जब भी मैं

जब भी मैं कोई कहानी लिखने की सोचता हूँ तो तुम पन्नों पे उतर जाती हो। अकसर मैं इस उलझन में रहता हूँ कि आखिर वजह क्या है.. और तुम्हारे में आखिर वो बात कौन सी है जो मुझे तुम्हारे करीब ले जाती हैं.. क्यूं हर पल मेरे यादों में तुम दौड़ती रहती हो, क्यूं मैं तुम्हारा दीवाना बना फिरा करता हूँ। हाँ, ये मुझे पता है तुम बहोत खूबसूरत हो.. सुनता रहता हूँ अकसर मैं तुम्हारे बारें में.. जब भी लंच-टाइम में तुम मेरे करीब से गुजर जाती हो, तुम्हारी जुल्फें मेरे चेहरे पे बिखर जाती है और मैं उनमें घंटों कैद रहता हूँ.. और तुम्हारा जिक्र मुझमें गुजरता रहता है बिलकुल एक शांत जल-प्रवाह की तरह। जब कभी तुम साड़ी में आफिस आती हो तो फिर सबकी नजरों से खुद को छिपाकर मैं भी तुम्हें देखने की एक पूरी कोशिश करता हूँ.. और तुम्हारी निगाहों से जब मेरी निगाहें टकरा जाती है.. मैं घंटों शर्म से मरा जाता हूँ खुद में। तुम शायद मेरी जिंदगी की सबसे खूबसूरत याद हो.. शायद इसलिए मैं तुम्हें भूला नहीं पाता या कोई और वजह हो.. मुझे पता नहीं, लेकिन जब भी मैं कोई कहानी लिखने की सोचता हूँ तो तुम पन्नों पे उतर जाती हो।

नितेश वर्मा और तुम।

Saturday, 31 October 2015

सर्दियों की रात

सर्दियों की रात मुझमें खामोशिया बसर करती हैं
बैठ जाती हैं अक्सर लेके सीनें के अंदर कसक
जैसे गुजरता हुआ वक्त ठहर जाता हैं
मेरे उबरतें घाव थम जाते हैं
अक्सर लिखते-लिखते तुम्हें सोचा करता हूँ मैं
वरक बोझिल से हो जाते हैं, स्याह शांत रहती हैं
उस कमरें की छोटी मग़र उफनती लौ
जिसमें मैं दिव्यमान सा रहता हूँ घुटती रहती हैं
मग़र जब भी ऐसा होता हैं
माँ मेरा सर सहला देती हैं और
और
चाय की कप मेरे हाथों में पकडा जाती हैं
मेरा सिर खुद से बोझिल होकर
मेज़ पर बेसबब चला जाता हैं
फिर माँ जब सिर सहलातें-सहलातें कहती हैं
बेटा अब सो जाना तो ऐसा लगता हैं जैसे
सर्दियों की रात में एक गर्म एहसास भी होती हैं
फिर सोचता हैं दिल कभी-कभी क्या
तुम्हारें पहलें भी माँ
और तुम्हारें बाद भी मुझमें माँ ही होती हैं
वर्ना अक्सर
सर्दियों की रात मुझमें खामोशिया बसर करती हैं।

नितेश वर्मा

मेरे ख्यालों में उतरते है लोग बहोत

मेरे ख्यालों में उतरते है लोग बहोत
फिर खुद ही बदलते है लोग बहोत।

गीतों की धुन, वो पाजेब से आती है
वो आयी तो संभलते है लोग बहोत।

मेरी आहों का हिसाब हो एक दिन
यूं देख मुझे मचलते है लोग बहोत।

परिंदे मुझमें बसर करते है रातों में
गुमसुम हो यूं चलते है लोग बहोत।

वो वक्त जो मुझमें गुजर चुका वर्मा
बेवक्त वो याद करते है लोग बहोत।

नितेश वर्मा और लोग बहोत।

यूं ही एक ख्याल सा

उसकी आँखों का कुसूर था.. मेरी आँखों को पढ़ना..
वो बदतमीज था और मैं बेशर्म।

नितेश वर्मा और आँखें।

तुम्हारी आँखें सच बोलती हैं।

तुम्हारी आँखें सच बोलती हैं।
-मैंने कहा
इन्होंने कभी झूठ नहीं बोला।
-उसने कहा
फिर शर्म से निगाहें झुक गयीं..
..हम दोनों की।

नितेश वर्मा

Friday, 30 October 2015

शायद वक्त अब बुरे घिरने लगे हैं

शायद वक्त अब बुरे घिरने लगे हैं
ये खौफ आँखों से झलकती हैं
जब भी
कोई बूंद निगाहों की छलकती हैं
मैं उस शांत से मौसम के शाम में
बस
चाँद को घूरते तुम्हें सोचा करता हूँ
फिर
एक ठंडी सी बयार चल जाती हैं
उस शीत के धुंध में
फिर से एक वजह मिल जाती हैं
तुम कहीं गायब हो जाती हो
और
आँसू ये मेरे कोहरे से जाके मिल जाते हैं।

नितेश वर्मा

Thursday, 29 October 2015

यूं ही एक ख्याल सा

वक्त अब भी गुजर रहा है जब तुम नहीं हो.. आड़ी-तिरछी शक्लों में बीत रही हैं जिन्दगी मगर कोई शिकायत नहीं हैं.. बस एक कसक तुम्हारे जाने को लेकर है। तुम्हारे आने और फिर चले जाने को लेकर मैं परेशान हूँ, मगर फिर भी तुमसे कोई शिकायत नहीं हैं। अब तो यादाश्त और भी बारिक हो गयी हैं.. जब से तुम गयी हो हर बार तुम्हारे स्वादानुसार पाँच चम्मच चीनी को चाय के कप में उड़ेल के पी जाता हूँ, वो भी बिना किसी शिकायत के। अक्सर तुम्हारे जाने के बाद मैं ऐसे ही किया करता हूँ.. मैंने तुम्हारे ख्यालों-जिक्र से सोहबत कर ली है, और अब चाय भी तुम्हारी शर्तों पर पीता हूँ.. इस ख्याल से हर बार उसे फूँक कर.. की इस बार कोई जलन ना हो.. ना इस ओर.. और.. ना ही उस ओर।

नितेश वर्मा और चाय 🍵।

मुझको तो वो बदलनें के लिये

मुझको तो वो बदलनें के लिये
पास आये हैं वो चलनें के लिये।

आहट से ही जो घबरा जाते हैं
शोर करते हैं मचलने के लिये।

मुहब्बत बस आँखों की देखिये
ज़िस्म तो हैं ये ढलने के लिये।

यूं तो गुनाहगार मैं भी हूँ तेरा
शहर से तेरे निकलने के लिये।

शराब के नशे से जब रिहा हुए
फिक्र थीं बस संभलने के लिये।

नितेश वर्मा

बेरहम दर्द मुझमें मुस्कुराते हैं

बेरहम दर्द मुझमें मुस्कुराते हैं
जाने क्यूं मुझको वो यूं सताते हैं
वो मेरा जो हो नहीं पाया है
जाने आँखें प्यार क्यूं जगाते हैं
बेरहम दर्द मुझमें मुस्कुराते हैं

पास जो आ गया है दिल तेरे
साँसों की घुटन जाने क्यूं है बढे
थमी धड़कने हैं सहम के अभी
करीब से जो वो कुछ कह जाते हैं
बेरहम दर्द मुझमें मुस्कुराते हैं

सुन के भी वो मुझे ना आते हैं
लम्हे लम्बे यूं ही गुजर जाते हैं
वो जो छुपकर कहीं रूक जाये
मुझमें समुन्दर कोई जो बताते हैं
बेरहम दर्द मुझमें मुस्कुराते हैं

नितेश वर्मा और बेरहम दर्द।

यूं ही एक ख्याल सा

मैं आज भी वहीं ठहरा हुआ वक्त हूँ जो कि खुद से उदास हैं और थोड़ा तन्हा भी.. पर तुम.. जब भी पीछे मुड़के मुझको देखती हो तुम्हारी शिकायत हर बार यही होती हैं कि - तुम तो अब भी बिलकुल नहीं बदलें।
मगर..
तुम जितना छोड़ गयी थीं मुझे मुझमें मैंने.. बस उसे सँभाले रखा हैं.. पर जाने क्यूं तुम्हारी शिकायतें ये मुझे कभी समझती नहीं।
मैं आज भी वहीं ठहरा हुआ वक्त हूँ.. और तुम हर बार की बदलती हुई कोई शीत, बस मुझमें आकर सिहरन सी छोड़ जाती हो।

नितेश वर्मा और तुम।

पता नहीं क्यूं

शहर में चुनावी चहल-पहल
आक्रोशित माहौल
गलियारों में गूंजती शिव आरती
शाम को मुतमईन करती अज़ान
मेरा संग तुम्हारे नौका विहार
सब कुछ एक साथ ही गुजरता है
पर
मैं आज तक हैरान हूँ..
बस इस बात को लेकर
क्यूं तुम
उस चुनावी माहौल में आकर
ये कौम का बहाना बनाकर
मुझसे अलग हो गयीं
और फिर मुझसे इतनी दूर.. की
मैं फिर तुम्हें
वापस बुला ना सका
जाने क्यूं.. पता नहीं क्यूं.. या यूं ही
पता नहीं क्यूं.. मगर नहीं बुला सका
और ना ही अब तक भूला पाया हूँ
पता नहीं क्यूं।

नितेश वर्मा और पता नहीं क्यूं।

यूं ही एक ख्याल सा

मैं याद हूँ तुम्हें, याद करो.. हम दोनों साथ ही रहा करते थे और.. और वो..
फिर वो बोलते-बोलते.. परेशान सी होकर, कुछ कहते-कहते खुद में उलझ गयीं..
और मैं बस उसे देखता रहा.. जाने क्यूं इस बार उसे मेरे कांधे की जरूरत क्यूं महसूस नहीं हुई और ना ही मेरी आँखें इस बार नम ही हुई।
ऐसा क्यूं एक-बार फिर से दुहराया जा रहा है, सवाल यही है जिन्दगी की जो हल होती नहीं हैं, फिर वहीं जाने क्यूं की कसक के साथ.. जाने क्यूं।

नितेश वर्मा

गुजर जाये कुछ मुझमें यूं तू

गुजर जाये कुछ मुझमें यूं तू
मैं बेचैन रहूँ तो हो मेरा सुकूँ तू
देखें हैं जो ये नम आँखें तुमने
मैं गर वो प्यास तो दरिया हैं तू
हवाओं के सिमटने पर जो
बारिश में भी छुप रहने को जो
ढूंढते हैं जो बेसबब मकाँ तेरा
लापता होके वो मेरा पता है तू
मैं मंजिल हूँ तो बेफिक्र राह तू
कैसा मेरा हाल जो हैं बेहाल तू
गुजर जाये कुछ मुझमें यूं तू
मैं बेचैन रहूँ तो हो मेरा सुकूँ तू

नितेश वर्मा

Saturday, 24 October 2015

यकीनन हर बार की तरह इस बार भी होगा

यकीनन हर बार की तरह इस बार भी होगा
वो जलाया जायेगा तो रंगा अखबार भी होगा

कौन कहता है जमाना मेरा कुछ कहता नहीं
वक्त चुनावी हो तो देखना समाचार भी होगा

तुमको जो यकीन ना हुआ मेरे गुजर जाने पे
मैंने कहाँ ही कब था ये कभी प्रचार भी होगा

अब बातें बदलकर मुद्दा ढूंढते हैं लोग वर्मा
नहीं लगता बाद इसके वो इश्तेहार भी होगा

नितेश वर्मा


यूं ही एक ख्याल सा..

वो चली जाने के लिये उठी थी.. मगर किसे पता था वो दुबारा लौटकर नहीं आयेगी।
अब जो हर जगह खुद को तन्हा महसूस करता हूँ.. टूट जाता हूँ.. खुद में ये सोचकर.. काश!.. काश मैं ही समझ जाता उसे।
शायद वो रूक जाती.. मेरे पास बैठ जाती.. अपनी जुल्फों को सुलझाकर.. मेरे कांधे पर अपना सर रखकर दो पल सुकूँ के दे जाती.. काश! उस वक़्त मेरी हाथों की पकड़ उसकी नाजुक उंगलियों को रिहा ना करती.. काश मैं उसे थाम लेता।
दरअसल, यही तो मुहब्बत होती हैं एक-दूसरे से बिना पूछे उसके दिल की सुन लेना.. उसके लिये बिना शर्त के वो सब कुछ कर जाना जिसे उसकी उम्मीद बंधी हुई होती हैं।
मगर अब सब कुछ धुँधला सा दिखता हैं मेरे आँसू भी मगरमच्छ के लगते हैं, इस बात की अब कोई वजह नहीं और ना ही इस प्राश्चित की जरूरत.. क्यूंकि वो तो चली जाने के लिये उठी थी.. फिर कभी दुबारा न आने के लिये।

नितेश वर्मा और वो।

रावण को शहर में जलाने की भीड़

रावण को शहर में जलाने की भीड़
लोकगीतों पे लोगों का झूमना
मेरा उस भीड़ में गुमसुम रह जाना 
एक कसक सदियों से सीने में दफ़न 
तुम्हें तलाशती मेरी आँखें
विरह की एक अद्भुत अद्वितीय कहानी
फिसल रहे है यूंही जाने तीर कितने
कमान जिन्दगी की हर पल बदल रही
फिर तुम मुझमें हवा सी गुजर जाती
और मैं रावण की तरह जलता रहता
एक विशाल और भयंकर वेदना लिये
जाने क्यूं अब राम बदल गये हैं
और रावण मैं एक ही शक्ल में खड़ा हूँ।

नितेश वर्मा

और उलझती सी एक उदास शाम

और उलझती सी एक उदास शाम
और भी नाराज लगती हैं
जब कभी तुम मिलने नहीं आती
जब कोई वाक्या नहीं होता
हम एक-दूसरे के दरम्यान
साँसें रूक जाती हैं धड़कने पर
हर बार होता हैं ऐसा ही
जब कभी मैं तुम्हें सोचता हूँ
लगती हैं..
जैसे बात ये कल की ही हैं।

नितेश वर्मा

जो दर्द दिखता नहीं वो दर्द क्या चुभता नहीं

जो दर्द दिखता नहीं वो दर्द क्या चुभता नहीं
मुहब्बत के बाद दिल क्या कोई टूटता नहीं।

बात बरसों की बेवजह याद आई इस कदर
शक्ल वो आईने सा मगर अब दिखता नहीं।

फिसल गये रेत सारे हूँ मैं अब खाली-खाली
समुन्दर से अक्सर कोई वजह पूछता नहीं।

ये रिश्ते-नाते सब तोड़कर शहर आ गये हैं
फिर क्यूं कहते हैं लोग अपना छूटता नहीं।

अक्सर होता ही ऐसा है वो मुड़ जाते है वर्मा
क्या ऐसे मोड़ पे आकर अक्ल रूकता नहीं।

नितेश वर्मा


जब कभी सुकून तुममें बढ़ जाने लगे

जब कभी सुकून तुममें बढ़ जाने लगे
पल-दो-पल हँसीं से गुजर जाने लगे
आँखें भी जब बेखौफ मुस्कुराने लगे
बात थमीं हुई फिर से आगे बढ़ जाने लगे
चेहरे भी पर्दों के आगे ग़र आ जाने लगे
कितनी सुंदर हैं बात
ग़र बात कोई दिल को बहलाने लगे
बारिशें भी बेधड़क मुझपे बरस जाने लगे
नैय्या ख्वाबों को पार करकें ले जाने लगे
डूबता सूरज चाँद को कुछ समझाने लगे
पते मंज़िल को जब तुमसे मिलवाने लगे
फिर सोचना तुम.. वक्त बदल रहा है..
लोग बदल रहे हैं.. देश भी ये बदलेगा
आखिर बचा रहेगा क्या मुझमें कुछ
लोग यही बात अब मुझे समझाने लगे
जब कभी सुकून तुममें बढ़ जाने लगे
पल-दो-पल हँसीं से गुजर जाने लगे।

नितेश वर्मा

बेखबर से जाने क्यूं हम

बेखबर से जाने क्यूं हम
कोई खबर ढूंढ लाओ तुम
साँसों से बेअसर क्यूं हम
कोई असर कर जाओ तुम
मुझमें रह लो तुम
मुझे खुद सा कर जाओ तुम
होंठों की नमी को मुझपे रखके
खुदको ही भूल जाओ तुम
बेखबर से जाने क्यूं हम
कोई खबर ढूंढ लाओ तुम

ख्वाब मिलते जिस जगह है
इन आँखों को छोड़ आओ तुम
प्यास हैं इनमें जाने कितनी
समुन्दर खुदको कर जाओ तुम
मुझमें सिमटो तुम कभी
मुझको जिंदा कर जाओ तुम
बरसती हैं हर पल मुझमें छींटें
कभी मुझको भींगा जाओ तुम
बेखबर से जाने क्यूं हम
कोई खबर ढूंढ लाओ तुम

नितेश वर्मा

इस खौफ में जले हैं सारे पत्ते सियासत के

इस खौफ में जले हैं सारे पत्ते सियासत के
कोई पढ ना ले मंसूब उनके हिमाकत के।

मैं लिखने लगा खुलकर विचारों को अपने
फिर हुये मेरे घर कई दस्तकें हिदायत के।

इस शहर में बारिशों का मौसम हैं ही नहीं
फिर क्यूं बंधे है लोग बंधुआ ज़िराअत के। [ ज़िराअत = खेती ]

वो जब चाहे लौटा देता हैं खिलौना मानके
शर्तें अब वो भी मनवाता हैं निज़ामत के।

इंसा अब वजह ढूंढते हैं हिंदू-मुसलमा के
वर्मा बेवजह हैं खून बरसते यूं विरासत के।

नितेश वर्मा


Monday, 19 October 2015

यूं ही एक ख्याल सा

जब कभी मैं खामोश हो जाता हूँ तुम मुझमें धड़कती हो.. तुम्हारी जिक्र भर बस मुझे नजाने कैसे घंटों तक एक ख्याल में बाँधें रखती हैं। तुम बिलकुल आजकल की शामों की तरह लगती हो.. न कोई शिकवा न कोई शिकायत। मग़र जब भी मैं तुम्हें इस कदर उदास देखता हूँ.. मैं नहीं बयां कर सकता किस कदर मैं परेशां हो जाता हूँ। ये उबाऊ सी ज़िन्दगी और भी बोझिल लगने लगती हैं.. शाम की बहती पुरवईया भी साँसों में अवरोध पैदा करती हैं, मुझे नहीं पता ये सब मेरे साथ ही क्यूं होता हैं.. जब भी कभी तुम्हारा जिक्र होता हैं.. सारे गमों की बारिश मेरी तरफ हो जाती हैं.. मैं तन्हा हो जाता हूँ.. टूट जाता हूँ.. बिखर जाता हूँ.. एक पल में तमाम उल्फतें झेलता हूँ.. होता हैं जब भी ऐसा.. मेरी चाय उबलने लगती हैं। फिर सब कुछ छुपा लेने के चक्कर में.. एक कप चाय बचा लेने के मशक्कत में कुछ पल मैं खुद को मुस्कुराता हुआ पाता हूँ.. ये याद करते हुए ऐसे कभी मुझे देखकर तुम कितनी देर तक खिलखिलाकर हँसा करती थीं।

नितेश वर्मा और चाय ।

कभी-कभी

बस कलम मेरी खामोश हो जाती हैं
कभी-कभी
मैं मूक हो जाता हूँ कुछ अहम से मुद्दों पे
कभी-कभी
मेरी आवाज़ उठती नहीं खिलाफ तेरे
नजाने क्यूं मैं कुछ बोलता नहीं
तेरी गलतियाँ हर रोज़ बढ़ती है
करवटें लेती हैं और मैं
मैं खुद में सिमटता रहता हूँ
थोड़ा-थोड़ा सा ही मगर टूटता रहता हूँ
कभी-कभी होता हैं ऐसा क्यूं
मैं देखता रहता हूँ समझता रहता हूँ
फिर सब नज़र-अंदाज करकें
खामोश हो जाता हूँ
इक प्रतिउत्तर में मुन्तजिर लोग भी हैं
मैं यूं ही तेरे कारण सुनता जाता हूँ
बोलू भी तो क्या बोलू
ये बिकी-बंधी जुबान अब कहाँ तक खोलू
इसलिए होता हैं ऐसा
बस कलम मेरी खामोश हो जाती हैं
कभी-कभी
मैं मूक हो जाता हूँ कुछ अहम से मुद्दों पे
कभी-कभी

नितेश वर्मा और कभी-कभी।

Sunday, 18 October 2015

तुम भूल जाती हो अक्सर

तुम भूल जाती हो अक्सर
मुझमें एक क्रांतिकारी भी रहता हैं
अक्सर..
अक्सर तुम डर जाती हो हर खौफ से
तुम्हें नजानें कितनी वजहें
एक साथ डराती हैं
नजानें तुम क्या सोचा करती हो
अक्सर..
अक्सर तुम भूल जाती हो
तुम्हें फिक्र रहती हैं.. मैं बचा रहूँ
हर गलत-ओ-नज़र-अंदाज़ से
तुम नहीं चाहती हो कोई भी वजह यूं बेवजह
तुम नहीं चाहती
उँगलियाँ उठकर कभी आयें मेरी तरफ
तुम नहीं चाहती
कोई भी मौसम आ के भींगाये मुझको
तुम नहीं चाहती
इस मासूम शक्ल पे कोई दाग़ आयें
तुम नहीं चाहती हो कुछ भी ऐसा
मग़र..
तुम भूल जाती हो अक्सर
मुझमें एक क्रांतिकारी भी रहता हैं
तुम भूल जाती हो अक्सर।

नितेश वर्मा और तुम भूल जाती हो अक्सर।

Saturday, 17 October 2015

कोई नई बात

एक लघु कथा

तुम इतना क्यूं सोचते हो, मुझे तुम्हारे लिये कुछ भी कर के एक अजीब खुशी मिलती हैं बिलकुल एक रूहानी सुकून सा लगता हैं.. मैं कुछ भी तुम्हारे लिये कर सकूँ वो मेरी खुशनसीबी हैं।
तुम खामाखाह ये सब सोचते रहते हो, तुम्हें तो बस मेरे बारे में सोचने का हक है और कुछ नहीं, समझे तुम।
तुम कितनी अच्छी हो।
जानती हूँ - कोई नई बात बताओ?
आई लव यू।
आई लव यू टू।
जानता हूँ, कोई नई बात करो।

नितेश वर्मा


यार - 2

यार!
कितना खूबसूरत हैं ना - मैंने कहा
जब अच्छे दोस्त साथ हो ना
तो
फिर सबकुछ अच्छा ही लगता हैं - उसने कहा
हाँ, वो तो मैं हूँ ही - मैंने कहा
तुम्हारी बात कौन कर रहा था ?
मैं तो अपनी बात बता रही थी - उसने कहा
लगता तो नहीं लेकिन हो तुम भी - मैंने कहा
क्या लगा था तुम्हें ?
सिर्फ तुम ही लिख सकते हों - उसने कहा
नहीं, ऐसी बात नहीं है - मैंने कहा
अच्छा! एक बात बताओ
क्यूं उदास सी रहती हो तुम - मैंने पूछा
कहाँ रहती हूँ मैं कभी उदास - उसने कहा
फिर तीन घंटे अपनी कहानी सुनाई
आँखों से आँसू बहा-बहा कर
एक बात बोलूं - मैंने पूछा
हाँ बोलो, ना बोलूंगी तो कौन सा मान जाओगे - उसने कहा
शायद इससे पहले ये किसी ने तुमसे नहीं कहा होगा - मैंने कहा
संजीदगी भरा उसका कहना था बोलो
यार!
तुम रोते हुये बहोत बुरी लगती हो - मैंने कहा।

नितेश वर्मा और यार।

यार - 1

यार!
खुश तो सब रहना चाहते हैं
लेकिन सबकी किस्मत में
ये खुशियाँ कहाँ होती हैं। - वो बोली
तुम किस्मत में यकीन रखती हो? - मैंने पूछा
नहीं, मुझे नहीं पता।
लेकिन कभी-कभी ऐसा क्यूं होता हैं
की
किसी की जिंदगी से मुश्किलात
खत्म होने का नाम ही नहीं लेती हैं - उसने पूछा
तुम्हें ऐसा क्यूं लगता हैं कि
तुम्हारी जिन्दगी भी
एक आजमाइश से होके गुजर रही हैं? - मैंने पूछा
उसने अपनी जुल्फों को सुलझाकर
मेरी ओर देख कर मुस्कुरा दिया
बिन कुछ बोलें.. यूं खामोशी से।
तुम हँसती रहा करो
तुम मुस्कुराती हुये बहोत अच्छी लगती हो - मैंने कहा
कैसे रहा करू खुश.. यूं ही बेजान तन्हा होके - उसने पूछा
मैंने हाथ बढाकर कहा संग चलोगी मेरे
जिन्दगी की दो मोड़ ही सही
मगर मुस्कुराते हुए
क्यूंकि
तुम मुस्कुराती हुये बहोत अच्छी लगती हो - मैंने कहा
इस बार मुस्कुरा कर उसने हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया बिन कुछ बोलें
अपनी आँखों को खुद से ही छिपाकर।

नितेश वर्मा और यार।

यूं ही एक ख्याल सा..

तेरे ईश्क़ की चादर ओढे हुए मैं चल देता हूँ किसी भी एकांत मौसम और विरह की परिस्थितियों में। मैं इसकी कोई वजह नहीं ढूंढता.. कि.. किसी शाम तुम मेरे चाय के प्याले में गिरती सिगरेट की राख को बस एक फिक्र से जुदा करने के लिये आ जाया करोगी.. और घंटों उस फिक्र में मुझको बाँधें रखोगी। मैं नहीं चाहता कि तुम मेरी गर्म चाय को मेरे लिये फूँके मार-मार कर उसे अपनी तरह शांत और कोमल कर दो.. मैं हर दर्द को सहना चाहता हूँ.. हर कड़वी सच्चाइयों को झेलना चाहता हूँ। मैं अपनी किसी भी वेदना को तुम्हारी किसी भी सहानुभूति को लेकर भूलना नहीं चाहता.. और ना ही उस अंतर्मन की कसक को कहीं खोल के रखना चाहता हूँ। मैं ना ही ख्यालों में उलझना चाहता हूँ.. और ना ही मैं किसी स्वांग को परिभाषित करने की कोई कोशिश कर रहा हूँ। मैं बस एक उम्मीद में जी रहा हूँ कि काश जैसे सब कुछ बदला है वैसे ये बेरहम वक्त भी गुजर जाये। मैंने अरसों पहले कहीं ये सुना था जब माँ कहती थी कि - बेटा! अल्लाह बहोत मेहरबान होता हैं, वो सबके लिए फिक्रमंद होता हैं.. तू फिक्र ना कर।

नितेश वर्मा

ये दिन ऐसे ही ढल जायेगा

ये दिन ऐसे ही ढल जायेगा
हँसते ही यूं निकल जायेगा।

प्यास को जो यूं वजह मिले
पत्थर भी वो पिघल जायेगा।

छुयें जो वो मुझको होंठों से
दिल मेरा भी मचल जायेगा।

झूठ चिल्लाकर आग लगाईं
दो घर अब तो जल जायेगा।

परिंदे को फिक्र भूख की थी
क्यूं नभ कुछ निगल जायेगा।

जो मर गयीं वो मेरी थीं वर्मा
बात अब सब बदल जायेगा।

नितेश वर्मा

Friday, 16 October 2015

मैंने आँखें मूँद ली है हर उफनती आवाज़ों पे

मैंने आँखें मूँद ली है हर उफनती आवाज़ों पे
मैंने खुदको छुपा लिया है हर शह के खौफ से
मैंने बदलने की भी कोशिश की है बेदस्तूर
ग़मों से इंसा को रिहा करने की
बारिश से भयंकर तूफाँ को जुदा करने की
मैंने ठानी हैं हर वो शर्त.. मग़र शर्मिंदा हूँ
देखता हूँ जब भी आँखें हल्की सी खोलकर
एक टींस उठती हैं उबलती लावा बनकर
सब कुछ राख के ढेर पर बना मिलता हैं
आँधी जाने क्यूं वो बेखौफ चलके आती नहीं
मैं देखता हूँ.. अब भी कुछ गुमसुम नहीं हैं
एक लूट सी मची हैं.. एक शोर उठता है रोज़
मैंने जिंदगी को एक गिरफ्त में उड़ेल दिया है
अब कुछ नहीं देखा जाता तो मौन हूँ मैं
मैंने आँखें मूँद ली है हर उफनती आवाज़ों पे
मैंने खुदको छुपा लिया है हर शह के खौफ से।

नितेश वर्मा

यूं ही एक ख्याल सा

यूं ही एक ख्याल सा..

ऐसी बारिशें हो जाया करें.. तुम किसी गली के मोड़ पे ठहरी हुई मिल जाओ.. तो बहोत अच्छा लगता हैं.. बिलकुल एक खूबसूरत मकाम सा। 😘
पर..
जब भी ये मौसम मेरा साथ ऐसे देती हैं.. नजानें क्यूं तुम्हें जाने की जल्दी होती हैं।

नितेश वर्मा और बारिश ☔।

जुबां अब गीत के गुनगुनाऐंगे तेरे भी

जुबां अब गीत के गुनगुनाऐंगे तेरे भी
एक रात तारें ख्वाब सजाऐंगे तेरे भी
वो भीनी धूप बारिश के बाद होगी ही
हसीं मौसम कभी ऐसे आऐंगे तेरे भी
टहनियाँ पत्तों से बोझिल होके रहेंगी
बात कुछेक जंगलों में बरसेंगे तेरे भी
लौह से रिहा हो ख्वाब उड़ेंगे तेरे भी
जुबां अब गीत के गुनगुनाऐंगे तेरे भी

मचलती ख्वाहिशें परें तलाशेंगी यूंही
कुछ साज यूंही बेमर्जी बजेंगे तेरे भी
चेहरों के ये उतरते रंग भरेंगे तेरे भी
पुराने वो सलवटें मुस्कुराऐंगे तेरे भी
हुक्म उँगलियाँ यूं फरमाऐंगे तेरे भी
नवाबी सर पे किसीके छाऐंगे तेरे भी
आसमान पे देखना नाम होंगे तेरे भी
जुबां अब गीत के गुनगुनाऐंगे तेरे भी

नितेश वर्मा और तेरे भी।

अगर खाली हुआ आसमान तो क्या हुआ

अगर खाली हुआ आसमान तो क्या हुआ
बिखरा सा ही हुआ इन्सान तो क्या हुआ।

मुर्दाशहर में जिंदा लोग जलायें जा रहे है
शहर का यूंही हुआ वीरान तो क्या हुआ।

बड़े शहादत की उम्मीद लगाके रक्खें थे
नहीं शख्स हुआ मुसलमान तो क्या हुआ।

पैरों पे कंकड़ बाँध के दौड़ती रही साँसें
जन्म प्यासा हुआ अरमान तो क्या हुआ।

बस वो बेवकूफ बचके निकल गये वर्मा
आग लगाकर हुआ महान तो क्या हुआ।

नितेश वर्मा और तो क्या हुआ।

ये तन्हाई सताती है बस मुझको शामों में

ये तन्हाई सताती है बस मुझको शामों में
देखता हूँ जब उसको अपने ही जामों में।

अब तो सही में लगता हैं सब बदल गया
कहाँ कोई चीज़ मिली हैं मेरे ही दामों में।

शक्लें नोंचता हैं वो यूं हर रोज़ खुरचकर
वो नहीं चाहता भरे जख्म यूं गुमनामों में।

मुझको ये उलझनें छोड़तीं ही नहीं वर्मा
वो भी यूं मसरूफ़ हैं अपने ही कामों में।

नितेश वर्मा

Wednesday, 14 October 2015

मेरी जिन्दगी की सबसे तेज़ धूप में

मेरी जिन्दगी की सबसे तेज़ धूप में
तुम्हारा मेरे साथ चलते रहना
बिन कुछ बोलें यूं खामोश होकर
सर पर पड़ती शिकन की बूंदें
जब भी तुम अपने दुपट्टे से पोंछती
मैं एक पल में तुमको जीं भरके देखता
फिर अचानक तुम रूक जाती
मैं भी शर्मां कर नज़रें फेर लेता
तुम्हें प्यास सताती और मैं
एक अलग अंदाज में तुमसे पूछता
क्या हुआ थक गयी हो
और फिर तुम चुपचाप नजरें झुकाकर
मासूमियत से हाँ में सर हिला देती
मैं तुम्हारे और करीब हो जाता
तुम घबरा कर मुझे देखती रहती
मैं तुम्हारी कोमल सी हाथों को
अपनी गिरफ्त में कर लेता
तुम सवालिया होकर मुझसे कहती
क्या कर रहे हो कोई देख लेगा
मेरा कहना होता तुम्हें सँभाल रहा हूँ
और
तुम मेरे सीने पे अपना सर रख देती।

नितेश वर्मा और तुम।

Tuesday, 13 October 2015

Slowly slowly

And the day passes slowly slowly
And the minutes pin of the clock
Gazed me as like as
A condemned saw the judge
And the sudden of your appearance
All these things gonna be a wrong time
At a wrong place
When you came to me
And your lips on my eyes
Tears.. Tears.. And Tears..
Flowing fluently on my cheeks
Why it came into my eyes
And why you came into my life
Life gonna be depressed
Totally depressed
But
I walks.. slowly slowly
as slowly as I can
In dreams of that, I thinks
One day
all these things gonna be happening again
At a right time
And a right place.

Nitesh Verma Poetry


Monday, 12 October 2015

जबरदस्ती बकवासपरस्ती

जबरदस्ती बकवासपरस्ती करते हैं
खुद को खुद में उलझाते हैं
चल सूरज से आँख लड़ाते हैं
चल पैरों से धूल उड़ाते हैं
बारिश की बूंदें मुँह में भरते हैं
फिर हाथों को पंख बनाते हैं
चल चिड़ियों के संग जंगल घूमते हैं
चल फूलों सा खिल जाते हैं
चल दूर फलक पे आशिया बनाते हैं
चल बात बेतुकी करते हैं
चल फिर शमाँ नया जलाते हैं
चल रात सड़को पे निकल जाते हैं
चल आरज़ू को और ऊँचा उड़ाते हैं
लबों पे बेसुरें सुर सजाते हैं
आँखों में सतरंगी रंगोली बनाते हैं
चल आ
जबरदस्ती बकवासपरस्ती करते हैं।
जबरदस्ती बकवासपरस्ती करते हैं।

नितेश वर्मा

मुझको मुहब्बत में फ़ना होना आता नहीं

मुझको मुहब्बत में फ़ना होना आता नहीं
उससे यही बात कहके खोना आता नहीं।

इक धूप सी पीछे लगी रही मुझसे ये मौत
सुकून दे कोई वो नज़र कोना आता नहीं।

बदहाली ओढे शक्ल पर मुन्तजिर हैं तेरे
गुजर जाये ये वक्त रोना-धोना आता नहीं।

हाँ मेरे हाथ मिट्टी से भी सने हैं मगर वर्मा
राजनीति में मुझे फसल बोना आता नहीं।

नितेश वर्मा और आता नहीं।

जान यूंही चली जाती हैं मुठभेड़ों में

जान यूंही चली जाती हैं मुठभेड़ों में
कौन यूंही बोलें औरों के लफेड़ो में।

इतने आसान से शक्लों में ढल गए
जिनको ता-उम्र तराशा तस्वीरों में।

नितेश वर्मा

अब जाने क्यूं मुझको ये गम सताने लगीं हैं

अब जाने क्यूं मुझको ये गम सताने लगीं हैं
तहरीरें भी देखकर मुझे मुस्कुरानें लगीं हैं।

मैं नंगे पाँव पूरे गाँव में दौड़ लगाया करता
अब शहर की तस्वीरें मुझे थकाने लगीं हैं।

क्यूं नासमझी मुझपर ही आकर ठहरती हैं
कोई पगली मुझसे भी दिल लगाने लगीं हैं।

खामोश निगाहों में कितनी बेताबियाँ थीं यूं
जिन्दगी भी अब आकर मुझे पढाने लगीं हैं।

मुझको तो हर शाम तुम याद आ जाती थीं
क्यूं अब रात यूं ही मुझमें ढल जाने लगीं हैं।

नितेश वर्मा और लगीं हैं।

चाय

तुम चली गई मगर याद आज-तक हो
जैसे बचपन की कोई गीत
कभी एकाएक जुबां पे रम जाती हैं
तो
लाख कोशिशों के बावजूद भी
ना वो यूं भूलाये बैठती है
ना तुम भगायें भाग जाती हो
ना आँखें खामोश होती हैं
ना ये मतलबी वक्त गुजरता है
ना ही
तुम कभी चलकर करीब आती हो
सब अधूरा-अधूरा सा रहता हैं
फिर मैं
जब चाय चूल्हे पे चढाता हूँ
अदरख की वो सौंध सी खुशबू में
ऊपर उठते उस हल्के धुएँ में
एक मौन धुँधली सी तस्वीर
जिसमें सिर्फ तुम नज़र आती हो
सिर्फ तुम.. और बस.. सिर्फ तुम
फिर जाकर ये थकान उतरतीं हैं।

नितेश वर्मा और चाय 🍵।

Sunday, 11 October 2015

यूं ही एक ख्याल सा

यूं ही एक ख्याल सा..

उसे कंघन पसंद थें और मुझे खनकती चूडिया। उसे हर लोग से मुहब्बत हो जाती और मुझे सबसे चिढन। उसे रात की खामोशी सताती तो मुझे रातें एक सुकून दे जाती। उसे ये चुप्पी पसंद नहीं आती लेकिन मुझे चुपचाप घंटों बैठकर देखा करती। उसे जुल्फों का बिखरना पंसद नहीं पर मेरे साथ वो उन्हें उलझनें देती। वो बेबाक थीं तो मुझे हर वक्त एक डर सताया करता।
उसे तीखें गोल-गप्पें अच्छें लगते तो मुझे आलू की टिक्की। उसे शहर की भीड और वहाँ की बारिश अच्छी लगती तो मुझे उसमें अपनी गाँव नजर आती।
उसने ना कभी मुझे बदलनें की कोशिश की और ना मैनें कभी उसे।
उसे लिखना बोरिंग लगता था लेकिन मुझे पढकर वो खुश हो जाती। उसे शामों में काफी के साथ चिप्स पसंद आती तो मुझे चाय के साथ एक सिगरेट।
मग़र अब एक अरसा हो गया हैं, वो ना अब मुझे मिलती हैं और ना मैं उसे। बस खबरें कही से चली आती हैं
कि
अब वो शांत रहनें लगी हैं, रातों में बैठकर लिखनें लगी हैं, अपने गाँव भी घूम आयी हैं, आलू की टिक्की भी ट्राई कर चुकी हैं मग़र अब भी चाय के चुस्कियों के साथ जब सिगरेट की एक कश लेती हैं चाय सर पे चली जाती हैं और आँखों से बेसबर पानी मिनटों तक छ्लकते रहते हैं बरसते रहते हैं।
और मैं..
मैं भी उसे अब घंटों इस शहर की शोर में बैठ कर पढा करता हूँ तीखें गोल-गप्पें खाते हुएं।

नितेश वर्मा

समय

समय के बाद अगर आपको कुछ मिलता हैं तो उसका औचित्य ना के बराबर होता हैं.. ठीक उसी प्रकार.. अगर कोई सोच आपकी समझ को समय से पहले प्राप्त हो जाता हैं तो उसका वर्चस्व आपको आगे बढ़ने की अनुमति नहीं देता हैं.. और आदतन आप भाग-दौड़ की जिंदगी में उसे एक वजह का नाम देकर टाल देते हैं। लेकिन नियति.. इंसानी मतभेद या इंसानों के प्रारूप से तय नहीं होता इसलिये.. इंसान को निरंतर प्रयास करते रहना चाहिये। जीत पक्की मिलेगी.. जीत आपकी पक्की होगी.. ये प्रमाणित बात हैं।

नितेश वर्मा और समय।

Saturday, 10 October 2015

तुमको ऐसे क्यूं लगता हैं सब बदल जायेगा

तुमको ऐसे क्यूं लगता हैं सब बदल जायेगा
चराग़ तेरा आँधी में भी आकर जल जायेगा।

होंठों पर भींगी-भींगी सी प्यास ठहरती रही
मौसम जाने होके कौन सा मुकम्मल जायेगा।

इतने इत्मीनान से बैठें हैं जिंदगी की छाँव में
मौत भी आके करीब दो पल सँभल जायेगा।

दबे पाँव घर में घुस बैठें हैं मुसाफिर शहरी
इंकलाब फिर से मुझमें यूंही निकल जायेगा।

वो चलते हैं मसलेहत को खुदमें लेकर वर्मा
मुहब्बत में आकर दिल फिर मचल जायेगा।

नितेश वर्मा और जायेगा।

मुहब्बत सरनवाजी अब करती नहीं

मुहब्बत सरनवाजी अब करती नहीं
बात बेतुकी अब यूं ही बढ़ती नहीं
लोग बेहिस से हैं
मगर.. फिर भी..
इंतजार मायूसी की घटती नहीं
दो लम्हे गुजर जाये बस
यूं ही तुमको तकते-तकते
बेवजह हैं लेकिन फिर भी
क्यूं ये
आरजूएँ जिंदगी की मरती नहीं।

नितेश वर्मा और आरजूएँ।

Thursday, 8 October 2015

पात्र खुद में उल्झें हुये हैं

यूं ही एक ख्याल सा..

जब भी भूख उस गरीब के बच्चें को उकता देती हैं.. वो खामोश सडक किनारें अपनी आँखें मूंद लेता हैं.. और उसकी बेबस आँखों से छलकती पानी धीरें-धीरें उसके आँखों से रिंसने लगती हैं। यही दस्तूर हैं, कमजोर ही सताये जातें हैं.. चाहें महफिल कोई भी हो.. खुदा कोई भी.. या इंसान और हालात कोई भी। तकलीफ और मातम का सबसे पहलें भुगतान इन्ही को करना पडता हैं। मगर कभी-कभी मैं सोचता हूँ, ऐसे दस्तूर किस काम जो एक-तरफा बरसे और एक तरफा काम करें। परेशानी नाउम्मीदी के करीब ले आयी हैं, कहानी आज वज़ह ढूँढ रही है और पात्र खुद में उल्झें हुये हैं।

नितेश वर्मा

होती हैं क्या मुहब्बत मैं नहीं जानता

होती हैं क्या मुहब्बत मैं नहीं जानता
सच है, हूँ मैं सहमत मैं नहीं जानता।

वो आवाज़ मुझे सोने ही नहीं देती हैं
कैसी है तेरी तौहमत मैं नहीं जानता।

तुम प्यास से हारे तो थक के सो गये
कैसे गुजारी वो वक्त मैं नहीं जानता।

सारे शख्स मेरे अपनों की भीड़ में हैं
मुझसा था जो दरख्त मैं नहीं जानता।

फिर से उसी बाज़ार से गुजरें है वर्मा
शक्लें वो मौकापरस्त मैं नहीं जानता।

नितेश वर्मा और मैं नहीं जानता।

कभी कभी मैं चाहता हूँ

कभी कभी मैं चाहता हूँ
सारी परेशानियों से दूर
एक कोई कुटिया बना लू
जहाँ हर रोज़
मैं खुद को समझ पाऊँ
फूँक दूँ अलसायी गर्मी में
सूखें पत्तों के संग
तमाम तकलीफें अपनी
बना लू एक ऐसा जहां
जहाँ
सिर्फ़ मैं रहूँ और मेरी सुकून।

नितेश वर्मा और सुकून।

कोई गम हैं तो आकर बताओ जरा

कोई गम हैं तो आकर बताओ जरा
गमें-हालत मुझको भी सुनाओ जरा।

मैं तो यूं तेरे ही इंतजार में पागल हूँ
कभी नजरें इधर भी फरमाओ जरा।

तुम बेबाक हवा सी मुझमें रहती हो
मैं जुल्फ तेरा मुझे सुलझाओ जरा।

रो रही हैं आँखें शहर की खबरों पे
इल्जाम बेखौफ तुम लहराओ जरा।

इतनी सी ही मौइदत माँगी थी वर्मा
लबों पे इश्क़-ए-हर्फ दुहराओ जरा।

नितेश वर्मा और जरा।

दिल पुकारता रहा एक आवाज़ क्यूं

दिल पुकारता रहा एक आवाज़ क्यूं
शख्स वो नादान परेशां हैं आज क्यूं।

महफ़िल में रूसवाई आकर बैठीं है
सनम फिर दीवार पे गिरीं गाज क्यूं।

जब तक जीने की तमन्ना थी जी मैंने
फिर बेहिस रहे मौत से ये दाज क्यूं।

घुट घुट के जब चेहरा मरने लगा था
कसक उठीं परिंदों की परवाज क्यूं।

मौन रहे दो पल फिर चल दिए वर्मा
या रब ऐसी ही है अपनी समाज क्यूं।

नितेश वर्मा और क्यूं।

Monday, 5 October 2015

तुम बहुत खूबसूरत हो

एक शाम की बेतुकी प्रेम-संवाद हिंदी की कविता में..

तुम बहुत खूबसूरत हो
कितनी खूबसूरत,
चाँद सी क्या ?
हाँ बिलकुल, चाँद की चाँदनी सी
पर मेरा चाँद कौन हैं ?, तुम
नहीं मैं नहीं, पता नहीं
कौन हैं ? तुम जानती हो
नहीं, मैं तो अब तक नहीं मिली
क्यूं ? क्यूं नहीं मिली
क्यूं मिलू भला, तुम बताओ
मिलना तो था ना
वो मिले मुझसे, मैं क्यूं मरूँ
तुम्हें प्यार नहीं हैं क्या उससे
नहीं, नहीं हैं
तुम बताओ तुम्हें मुझसे हैं
क्या ?
प्यार, और क्या ?
क्यूं, पूछ रही हो अब ये ?
बता भी दो, अब ये
हाँ शायद! लेकिन डरता हूँ
किससे ? मुझसे क्या
नहीं, खुद से
क्यूं डरते हो बेवजह
बेवजह नहीं, वजह है ना
क्या है वजह ? बताओगे भी
कैसे बताऊँ ? ड़रता हूँ
हाथ जोड़ूं क्या अब
नहीं इसकी जरूरत नहीं
तो बताओ फिर
हाँ, बताता हूँ
बताओ
तुम बहुत खूबसूरत हो।

नितेश वर्मा और तुम बहुत खूबसूरत हो।

हैं कुछ पूछती मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी

हैं कुछ पूछती मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी
कहें तो हैं दूर् मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी

शिकवों-शिकायतों का जानें क्या सिलसिला
मिलती-झुकती मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी

वो तो इक खामोश-सी जुबान लिये बैठी हैं
करती सवालें मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी

अब-तक तो मैं हैंरत में जी रहा हूँ अए वर्मा
करती हैं ईश्क मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी

नितेश वर्मा

Sunday, 4 October 2015

तुम बदल गये हो बिलकुल उतने

तुम बदल गये हो बिलकुल उतने
जितने की
बेवफाओं के किताबों में
बेवफा का
ज़िक्र हुआ करता हैं
दिल फिर भी हमदर्द रहता है
कड़िया जिन्दगी की मजबूर है
साँसें बुनती रहती हैं
मगर
अब मुझको कोई फिक्र नहीं
तेरे चले जाने के बाद
मुझे भी अपनी परवाह नहीं
मगर जब भी शाम ढलती हैं
मैं शहर के एक तरफ की शोर में
पागल हो जाता हूँ
और जाने तुम खामोश कहाँ रहती हो
तुम कहाँ रहती हो।

नितेश वर्मा और तुम।

Saturday, 3 October 2015

मुसीबत में पत्थर ही परेशान करती रही

मुसीबत में पत्थर ही परेशान करती रही
और दिल ये उसी से पहचान करती रही।

हर बार के मतलबी वक्तों से शर्मिन्दा हैं
मेरे माथें की लकीर एहसान करती रही।

जो टूट जाते हैं रिश्ते यूं ही बेवजह कभी
वजह साफ एक मुझमें शान करती रही।

वो चलते गए जिनको जाने की जल्दी थीं
जो बची है वहीं मुझे कुर्बान करती रही।

किन-किन मुखबिरों से मैंने तलाशा तुझे
जो मिट गयी वो ही दास्तान करती रही।

नितेश वर्मा

बेवजह जब बात उठती हैं

बेवजह जब बात उठती हैं
उसकी हर बात चुभती हैं।

वो शातिर हैं हर मामले में
दिल को ये बात दुखती हैं।

सो जाते हैं उसके सायों में
जीने की ये बात मिलती हैं।

बर्बाद हैं हर शख्स ऐ वर्मा
फिर क्यूं वो बात हँसती हैं।

नितेश वर्मा और बात।

सितंबर का महीना

सितंबर का महीना
जून की गर्मी
बेहाल से लोग
उल्झतें मौसम
आँखों की नमी
बेदस्तूर हैं सब
बेहिस हैं साहब
कुदरत के आगे
इंसानों
की चलती नहीं।

नितेश वर्मा और कुदरत।

क्यूं स्याह से पुती मेरी प्रेम-पत्र हैं

क्यूं स्याह से पुती मेरी प्रेम-पत्र हैं
क्यूं अक्षरें अधमरे से पड़े हैं
काटें हुए हैं, मिटाएँ हुए तो कुछ
जबरदस्ती एक के उपर
एक को चढाये हुए हैं
ढोतें हैं जैसे वो भी रिश्ते मेरी तरह
फिर तन्हा होके हैं रिसते मेरी तरह
बात अब तक बदली नहीं हैं
रंगी हैं.. मटमैली भी थोड़ी हैं
क्यूं स्याह से पुती मेरी प्रेम-पत्र हैं
बिखरीं क्यूं आखिर ये यत्र-तत्र हैं
क्यूं स्याह से पुती मेरी प्रेम-पत्र हैं।

नितेश वर्मा और प्रेम-पत्र।



ये बहोत ही बहानेबाजी वाली बात लगती हैं

ये बहोत ही बहानेबाजी वाली बात लगती हैं
के अब मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ की गूंज
और
तुम बार-बार आकर मुझसे बोलती
मैं हर दफा वहीं जुमले सुना देता
तुम खामोश सुन लेती.. इस उम्मीद में
शायद मैं बदल जाऊँ
लेकिन मैं तो ठहरा वक्त था शायद
और तुम बहती हवा
तुम और हम साथ कभी चल सकते नहीं।

नितेश वर्मा


वो नींद तलाशता हैं शहरों की शोर में

वो नींद तलाशता हैं शहरों की शोर में
भटकता हैं जो हर रोज़ एक विभोर में।

वो उम्मीदों पे खड़ा उतरना चाहता है
जिसकी उम्र ही नहीं हैं उसके जोर में।

वो बस एक ख्वाहिश लिये जी रहा है
ढूंढें हैं जो पता लापता अपनी होड़ में।

वो तो संभल गया है उस चोट के बाद
जिंदगी अभ्भी पीछे पड़ी है यूं चोर में।

नितेश वर्मा


जब भी मैं फुरसत में होता हूँ

जब भी मैं फुरसत में होता हूँ
और
वक्त हमारे आड़े नहीं आती
छत से
चाँदनी और करीब लगती हैं
जब तुम अँधेरे रातों में
अपनी जुल्फों को चाँद की
रोशनी में नहलाती हो
बस मैं तुम्हें घूरता हूँ.. बस तुम्हें।

नितेश वर्मा


कौन ये यादों में आके गुनगुना जाता हैं

कौन ये यादों में आके गुनगुना जाता हैं
लब मुहब्बत के मुझको सुना जाता हैं।

मैं भूल जाता हूँ खुदको याद करने को
कोई बिखरता हैं तो कोई बुना जाता हैं।

मैं तो उसके हिसाब से ही रहने लगा हूँ
कुछ अपनी करूँ तो वो गुर्ना जाता हैं।

दिल मेरा भी अब घायल रहता हैं वर्मा
जैसे बर्षों रक्खा धान भी घूना जाता हैं।

नितेश वर्मा


बेखौफ रास्तों पे चलने का भी एक दौर आयेगा

बेखौफ रास्तों पे चलने का भी एक दौर आयेगा
मगर जब तक आयेगा वक्त कोई और आयेगा।

यूं तो मेरे मत्थे चढे हैं सारे निहत्थों की जिन्दगी
अब शहर में खून करने वो आदमखोर आयेगा।

दुनियादारी के हिस्से में सिर्फ सियासत ही हैं यूं
नाजानें कौन ईश्क में कभी करने गौर आयेगा।

सभी मुद्दे अफवाहों की पनाह में रहते हैं वर्मा
जो झूठ को झूठ बोलें कब उसे वो तौर आयेगा।

नितेश वर्मा


चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें
बेखौफ हो.. साजिशों को भी एक वजह दे
भूल जायें.. और लबों को दो पल मुस्कुराने दें
यादों को एक सहर दे.. आसमां को छाने दें
जो कहानियाँ लिखते हैं उनको भी तानें दें
बेपरवाह.. बेबाकी.. बेफिक्री से
आँसूओं को भी आँखों से बह के दूर जाने दें
चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

हैं समय का चक्र निरंतर निर्धारित निबंधित
कुछ अपने हिसाब से भी जिन्दगी को गाने दें
यूं हाथ से हाथ मिलाकर.. बेजुबाँ को जुबां देकर
मस्तिष्क को प्रलोभन से बचाकर कोई तरानें दें
हैं सीने में जो गम पीड़ा बन चुका उसे गलाने दें
क्रांति फैली हैं और इंकलाब भी आया हैं
फतवे जो जारी किये हैं.. हवाओं में लहराने दें
चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

खून हो जाता हैं हर रोज़ उस घर के मकानों में
दाग़ यूं बरसों ही रह जाती हैं उसके दामन पे
साँसों को भी धड़कनों के संग साज सजाने दें
कुंठित अफवाहों को किसी आग में जलाने दें
हो रहा है अन्याय सदियों से जो साथ जताने दें
बेतुका सा हैं एहसास मगर इस दफा सुनाने दें
हिंदू-मुस्लमां आज के दौर बने हैं.. ये बताने दें
चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

नितेश वर्मा

नितेश वर्मा और इंतजार

यूंही एक ख्याल सा..

मैं खामोश बैठीं रही और वो हवा का झोंका बार-बार मुझे परेशान करता रहा। मैं यादों में डूबी बस तुम्हें याद कर रही थीं और नजानें क्यूं हर बार हवाएँ मेरी जुल्फों को परेशान कर रही थीं। वो बेबाकी से मेरी जुल्फों को खुद की रफ्तार में कर लेती और मैं बार बार उन्हें सुलझा कर कानों के पीछे ले जाकर समेट लेती इस ख्याल से की अगर तुम आए और मेरी बेफिक्री से नाराज हो गये तो क्या होगा। मैं हर बात से सहमी तुम्हारा इंतजार आज तलक शामों में करती रहती हूँ कि कभी तो तुम लौट कर आओगे और मेरी इस ठहरी सी जिंदगी को फिर से जीने की एक वजह दे देगो।

नितेश वर्मा और इंतजार।

किसी के चले जाने से

किसी के चले जाने से
ना तो जिन्दगी रूकती हैं
और ना ही साँसें
कमसेकम तुम्हारे चलें जाने से
मेरे साथ तो ये नहीं होता
उत्तरदायी हूँ मैं हर गुनाह का
तुम प्रश्नवादी रहो कोई फिक्र नहीं
मैं बर्बाद हो जाऊँ
किसी वक्त पर आकर बिखर जाऊँ
तुम आबाद रहो
ऐसी दुआ अब मुझसे नहीं होती
जब से तुम गयीं हो सब ठीक है
सब ठीक है.. बस वजह रूठी है
बेवजह.. बेवजह.. बेवजह..

नितेश वर्मा और बेवजह।

बिछड़ कर मुझसे चले जाने के बाद

बिछड़ कर मुझसे चले जाने के बाद
तुम कोई साथी ढूंढ लेना
मुझे पता है तुम्हें हर वक़्त
एक सबल और समर्थ कांधे की
जरूरत महसूस होती हैं
मैं जानता हूँ ये एक विद्रोह होगा
मुझसे और मेरी मुहब्बत से
तुम्हारी प्रचलित अंदाज़ों -बयाँ से
फिर भी
तुम अपनी जिन्दगी जीं लेना
खुलकर दो पल को हँस लेना
रात बेखौफ रास्तों पे चल लेना
मैं मना लूंगा मातम
बेहिचक
तुम्हारे चलें जाने का.. रो लूंगा मैं
मैंने जो तुमसे छीना हैं.. जो लूटा हैं
लौटा तो नहीं सकता
मगर खुद को बदल सकता हूँ
दो कदम देर से ही सही.. चल सकता हूँ
मैं माँगता हूँ हर गुनाह की माफी
अब तुम समझना.. तुम समझना.. तुम समझना
बिछड़ कर मुझसे चले जाने के बाद
तुम कोई साथी ढूंढ लेना
तुम कोई साथी ढूंढ लेना।

नितेश वर्मा

Wednesday, 30 September 2015

समझो फिर तुम परेशां हो

जब चेहरे से दर्द रिसनें लगें
बंधी सारी ख्वाब टूटनें लगें
बात जुबां की बिगड़ने लगें
नींदों से रात बिछड़ने लगें
समझो फिर तुम परेशां हो

कोई कोशिश काम ना करें
शामों में भी आराम ना करें
शख्स बज़्म में जो तन्हा रहे
खुशी में भी विश्राम ना करें
समझो फिर तुम परेशां हो

चीखती पुकारें सुन ना सके
मरहम दर्द को चुन ना सके
दरिया प्यास को धुन ना सके
राग जो कबीरा बुन ना सके
समझो फिर तुम परेशां हो

अपराधी जब हो बेखौफ घूमें
सूरज की किरणें रोशनी ढूंढें
माँ तरसे जो बूंद भर पानी को
बाप की लाचारी बोतल सूंघें
समझो फिर तुम परेशां हो
समझो फिर तुम परेशां हो।

नितेश वर्मा

Tuesday, 29 September 2015

फिर तुमको सोचना होगा

अगर धूप से छाँव ड़रने लगे
पश्चिमी हवाएँ भी सहम कर बहने लगे
शहर से दूर बसी गाँव बिखरने लगे
अपनों की जिक्र पे जुबां मुकरने लगे
फिर तुमको सोचना होगा

किताबें जब झूठी दास्ताँ बताने लगे
मजहब जब कोई कौम बुरा बताने लगे
कोई तस्वीर जब ड़राने लगे
दरख्त भी सायों में गम गुनगुनाने लगे
फिर तुमको सोचना होगा

बादल आए और बरसें भी ना
संदेश भी जब शहर को सोहाये ना
बात अंग्रेजों को हिन्दी की भाये ना
दिल हो अखबार पर लिख पाये ना
फिर तुमको सोचना होगा

परिंदों की उड़ान जब जमीं ढूंढें
घरों की मकान जब वजह ढूंढें
लौट कर बच्चे जब माँ ना पुकारें
दर्द भी जाने को जब रिश्वत माँगें
फिर तुमको सोचना होगा

फिर तुमको जगना होगा हर गहरी नींद से
चलना होगा निर्भय.. अपने हक को
छीनना होगा.. मुक्कदर से लड़ना होगा
ऐसा होगा तो सोच लो.. चुप नहीं रहना होगा
फिर तुमको सोचना होगा
फिर तुमको सोचना होगा।

नितेश वर्मा और फिर तुमको सोचना होगा ।

मुझको हर शख्स छोड़ देता है राहों में

मुझको हर शख्स छोड़ देता है राहों में
शायद मैं रस्ता हूँ मुसाफिर के चाहों में

वो बुलंद रखता हैं आवाज़ अपनी वर्मा
बेखौफ हैं बच्चा अपनी माँ की बाहों में

नितेश वर्मा और माँ

Sunday, 27 September 2015

बातों के आड़ में लतियाते रहिये

बातों के आड़ में लतियाते रहिये
ऐसी है बात तो बतियाते रहिये।

इल्जाम सारे शहर के मुझसे हैं
हँसीं लब आप गुनगुनाते रहिये।

कितनी परेशान हैं आँखें तुम्हारी
नजरें यूं मुझसे भी मिलाते रहिये।

मैं तंग हूँ तुम सुल्झी किताब हो
इस दीवानें को भी पढाते रहिये।

जिंदगी भर गम ही मिले हैं वर्मा
खूनी सर हर बार कटाते रहिये।

नितेश वर्मा

कोई आवाज़ हैं जो आवाज़ कर रही हैं कानों में

कोई आवाज़ हैं जो आवाज़ कर रही हैं कानों में
दुरुस्त हैं हाल उनका करकें सवाल मकानों में।

बुझा दिया जाता हैं शाम के जलते उस दीप को
यूंही बेगैरत गुजरतीं हैं रात अपनी भी वीरानों में

शर्मिंदा अब हर शख्स हैं मेरे भी उस शहर का
देखते हैं जो अब गूँजता हैं नाम मेरा जहानों में।

बदल कर अपने अक्स को कितनी दूर चला हैं
जो ढूंढता हैं खुशियाँ सारी बिक्र की सामानों में

मेरे गम में भी वो बेहिसाब मौज करता है वर्मा
मैं याद आता हूँ जैसे नाम हो कोई ये बेगानों में।

नितेश वर्मा

Friday, 25 September 2015

यही अच्छा रहेगा

काल्पनिक चरित्र सचित्र मस्तिष्क में पड़े हैं
स्वप्नविहीन हैं और कष्टदायी भी
परंतु परम्परागत मनोरंजित करती हैं
अवशेषों से ह्रदय लगाकर उब गया हूँ
यादें कुंठित करती हैं
तुम चली जाओ.. यही अच्छा रहेगा
मैं ठहर जाऊँ.. यही अच्छा रहेगा।

नितेश वर्मा और यही अच्छा रहेगा।


पापा जब भी ये कहते

मुझे नहीं लगता कुछ होने जाने वाला है
पापा जब भी ये कहते
माँ उन्हें एक ठंडे ग्लास का पानी
मुस्कुरा कर पकड़ा देती
मैं आँगन के बीच में बिछी चटाई पर
चुपचाप सर झुकाएँ अपनी हिन्दी के
किताब की उसी कविता को दुहरा देता
जो मुझे हर दफा डाँट सुनने के बाद
गुनगुनाना होता था
जो मुझे याद होता था बिलकुल लयबद्ध
धीरे-धीरे मैं कविता में रम जाता
पापा रेडियो आन कर लेते
माँ शाम की पकौडियाँ तलने लगती
आसमान में तारें बिछने लगते सुदूर
सब खूबसूरत लगने लगता
फिर हौले-हौले हवा भी चलने लगती
जब कभी तुम आ जाती।

नितेश वर्मा

तमाम फसाद की जड़ मेरा लिखना हैं

तमाम फसाद की जड़ मेरा लिखना हैं
बिक जाता हूँ मैं काम मेरा बिकना हैं।

सुबह धूप में आँखें खुलती नहीं हैं मेरी
तो चरागों में भी कहाँ कुछ दिखना हैं।

पहेलियाँ सुलझाता हूँ यूं रात भर तन्हा
तन्हाइयों में उलझकर कुछ सीखना है।

बात और भी हद से बढ़ गयीं हैं वर्मा
कुछ भी हो भोर कली को खिलना हैं।

नितेश वर्मा

Thursday, 24 September 2015

के अब आके उसे गुरुर नज़र आता हैं

के अब आके उसे गुरुर नज़र आता हैं
ये जान भी उसे मगरूर नज़र आता हैं।

वो तन्हाइयों में भी जो पागल चलता हैं
आँखों में उसे भी सुरूर नज़र आता हैं।

बदलता है हरेक दफा वो चेहरा अपना
गौर से जो देखा मजबूर नज़र आता हैं।

कुछ गफलत हैं मेरे परिवार में यूं वर्मा
शख्स करीबी बहोत दूर नज़र आता हैं।

नितेश वर्मा और नज़र आता हैं।